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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

अहल्या को मर जाना चाहिए, मर जाना चाहिए...।

तभी गौतम ने कुछ फल लाकर, उसके सम्मुख रख दिए, ''अहल्या! कुछ खा पी लो प्रिये।''

पति के शब्द सुनते ही उसका हृदय हूक उठा। उसे लगा, उसके पेट के तल में जैसे बवंडर उठ रहे हैं-एक असह्य पीड़ा, जो बार-बार उसके व्यक्तित्व को मथ जाती है। उसका मन हुआ, वह सशब्द, जोर-जोर से रो पड़े; पर रो नहीं सकी। एक सिसकी के साथ उसके कंठ में शब्द फंस गया, ''स्वामि।''

गौतम ने उसके सिर पर स्नेह-भरा हाथ रख दिया, ''दुखी मत होओ प्रिये।''

पति के स्नेह-भरे स्पर्श ने उसके कंठ का अवरोध हटा दिया, वह गौतम के वक्ष के साथ लगकर, पूरे समारोह के साथ फूट पड़ी। गौतम ने उसे अपनी बांहों में थाम लिया। कभी उसकी पीठ पर हाथ फेरते और कभी उसके सिर पर ...अहल्या रोती जा रही थी। रुदन के पहले ज्वार के बाद अहल्या के कंठ से कुछ शब्द भी फूटने लगे थे, ''मुझे मर जाना चाहिए स्वामि! मुझे मर जाने दो...।''

''अहल्या!'' गौतम बोले, ''इसमें तुम्हारा क्या दोष है अहल्या। तुमसे जितना संभव हुआ, तुमने प्रतिरोध किया। जो कुछ हुआ, तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध हुआ, बलात् हुआ। तुम्हारे साथ अत्याचार हुआ है, अहल्या। मरना पीड़ित को नहीं चाहिए, मरना तो अत्याचारी को चाहिए, इन्द्र को मर जाना चाहिए। किंतु वह निर्लज्ज स्वयं कभी नहीं मरेगा, और उसे मारने वाला, सारी पृथ्वी पर मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ता।''

अहल्या निरंतर रोती जा रही थी, ''मैं अब आपके योग्य नहीं रही स्वामि। शत अब मुझ जैसी पतित स्त्री को मां कहकर कैसे पुकारेगा? और मैं अब उसे पुत्र कैसे कहूंगी स्वामि?''

''शांत होओ अहल्या।'' गौतम उसे समझाते रहे, ''तुम मेरी धर्म-पत्नी और पूर्णतः मेरे योग्य पत्नी हो। तुम पतित नहीं हो, तुम्हें ऐसा कहने का साहस कोई नहीं कर सकता। तुम्हारे शरीर के साथ, चाहे जो कुछ भी घटित हुआ हो, तुम्हारी आत्मा पूर्णतः शुद्ध, स्वच्छ और पवित्र है...।''

गौतम दिन-भर अहल्या को समझाते रहे। ज्वरग्रस्त शत को बहलाते रहे। समय-समय पर अपने ज्ञान के अनुसार, कुटिया में उपलब्ध कोई औषध देते रहे। उस ज्वर में बालक शत भी जैसे बहुत गंभीर हो गया था और परिस्थितियों की विषमता समझ रहा था। वह रोगी बच्चे के समान पिता को परेशान नहीं कर रहा था। जाने उसकी बुद्धि ने क्या देखा, और क्या समझा था...अहल्या कभी रोती, कभी मौन हो शून्य में घूरती रहती, कभी सिसकती और कभी लंबे-लंबे प्रलाप करती...। गौतम जानते थे, इस समय अहल्या के लिए यही सब स्वाभाविक था, और स्वास्थ्यकर भी। क्रमशः समय के साथ वह सहज हो सकेगी...।

संध्या थोड़ी ढली तो दिन-भर की रोती-कलपती अहल्या, निढाल-सी होकर बिस्तर पर लेट गई। पहले तो वह आंखें फाड़-फाड़कर शून्य को घूरने का प्रयत्न करती रही, और फिर आंखें बंद कर कुछ सोचती रही...। और इन्हीं प्रक्रियाओं के बीच अंततः वह सो गई।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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