उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
गौतम पर सदानीरा के कथन का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। वह उसी प्रकार उदास और अनमने बैठे रहे, ''कुछ भी घटे। अब गौतम का किसी से क्या सम्बन्ध?''
''कुलपति एक बार धैर्य से मेरी बात सुनें।'' सदानीरा बोली, ''मैं शत को गोद में ले, एक बार प्यार करने को बहुत व्याकुल थी, पर इतनी सी बात के लिए मुझे यहां कौन आने देता! स्वयं आचार्य ने मुझे विशेष कार्यवश भेजा है। आप मेरी बात सुनें...। '
''किसने? आचार्य ज्ञानप्रिय ने?'' गौतम चकित थे।
''तनिक ठहर सखी है!'' अहल्या ने कहा, ''शत सो गया है, उसे बिस्तरे पर डाल दूं। मैं सब कुछ विस्तार से सुनना चाहती हूं।''
अहल्या ने सावधानीपूर्वक शत को गोद में से उठा, कंधे से लगाया और धीरे से उठ खड़ी हुई। शत को बिस्तर पर लिटा, चादर ओढ़ा दी; और लौटकर सदानीरा के पास आ बैठी, ''अब कह सखी। क्या हुआ।''
''उस दुर्घटना के पश्चात'' सदानीरा ने बात आरम्भ की, ''उपकुलपति आचार्य अमितलाभ ने घोषणा की कि यह आश्रम भ्रष्ट हो चुका है, अतः एक नये आश्रम की स्थापना होनी चाहिए। उनकी बात का विशेष विरोध नहीं हुआ। जनकपुर से कुछ हटकर, नये आश्रम की स्थापना हो गई है। किन्तु नये आश्रम के लिए, सम्राट् सीरध्वज से मान्यता प्राप्त करने के सारे प्रयत्न असफल रहे हैं।''
''ठहर सखी।'' अहल्या ने उसे टोक दिया, ''मैंने तो आज तक यही सुना था कि ऋषि लोग सम्राटों को मान्यता देते हैं, आश्रमों से राज्यों की प्रतिष्ठा बढ़ती है। पर आज मैं यह क्या सुन रही हूं कि एक आश्रम सम्राट् से मान्यता मांग रहा है!''
''तुम ठीक कहती हो प्रिये।'' गौतम बोले, ''यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक आश्रम किसी सम्राट् से मान्यता मांगे ही। समर्थ ऋषि शासकों से कभी मान्यता और प्रतिष्ठा नहीं मांगते; किन्तु जब आश्रम की स्थापना, ज्ञान-प्रसार के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए हो तो पहले सम्राट् से मान्यता और फिर अनुदान मांगा जाता है। सम्राट् मान्यता देते हैं तो साथ ही धन देते हैं, भूमि देते हैं, गायें देते हैं, सुरक्षा देते हैं...।''
''यही बात है आर्य कुलपति।'' सदानीरा ने सहमति प्रकट की, ''अमितलाभ के चेलों-चांटों ने अनेक बार, घुमा-फिराकर, सम्राट् के सम्मुख उनका नाम रखा; 'किन्तु सम्राट् ने हर बार अस्वीकार कर दिया।''
''किसका नाम चाहते हैं सम्राट?'' अहल्या ने पूछा।
''देवि! सम्राट् अपने मुख से किसी का नाम नहीं लेते, पर अपने सम्प्रुख प्रस्तुत किए गए, प्रत्येक नाम के प्रति अरुचि प्रकट कर देते हैं। आश्रम का प्रत्येक व्यक्ति जानता, है कि सम्राट् केवल ऋषि गौतम को कुलपति के रूप में स्वीकार करेंगे। केवल एक ही व्यक्ति में उनका अटूट निष्ठा है-आर्य कुलपति में।''
''यदि गौतम को ही कुलपति रहना है, तो फिर इस बसे-बसाए आश्रम को भ्रष्ट घोषित करने का क्या अर्थ? गौतम के जाने से क्या नया आश्रम भी भ्रष्ट नहीं हो जाएगा?'' गौतम के स्वर में आक्रोश छलछला आया था।
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- प्रथम खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- बारह
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