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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

''स्वामि! बात साफ है।'' अहल्या बोली, ''यह आश्रम केवल मेरे कारण भ्रष्ट हुआ है। आर्य आज भी पूज्यनीय हैं। कुलपति के रूप में स्वीकार्य हैं...मेरे स्वामी, ''अहल्या सदानीरा की ओर घूमी, ''सखी, तुम्हें आचार्य कुलपति को बुलाने के लिए भेजा है न?''

''अहल्या।'' गौतम ने डांटा।

अहल्या ने स्नेहिल आंखों से गौतम को डपट दिया, ''क्या सदानीरा! इसीलिए आई है न तू?''

''हां देवि!'' सदानीरा की आंखें भीग उठीं।

गौतम उठकर खड़े हो गए। अपने भीतर की किसी व्याकुलता को दबाने के लिए वे कुटिया में इधर से उधर टहलने लगे थे। उनके जबड़े भिंचे हुए थे, मुट्ठियां कसी हुई थीं, ''मैं अहल्या को छोड़कर नहीं जाऊंगा। नहीं जाऊंगा। मुझे नहीं चाहिए कुलपतित्व। ये लोग समझते हैं कि कुलपति बनने के लालच में, मैं अपनी धर्मपत्नी को पतिता घोषित कर, उसका त्याग कर दूंगा? यह कभी नहीं होगा सदानीरा। तुम जाओ। उन लोगों से कह दो, यहां वन में रहकर, अपनी तपस्या के बल पर, गौतम समस्त कुलपतियों के सामूहिक सम्मान से बड़ा गौरव प्राप्त करके दिखाएगा...।'' ''शांत होओ स्वामि।'' अहल्या ने अत्यन्त मधुर स्वर में कहा, ''और सखी सदानीरा को जाने के लिए कहकर, उसका अपमान मत करो।''

गौतम हतप्रभ हो गए। सचमुच, सदानीरा को चली जाने के लिए उन्होंने कैसे कह दिया। घर आए अतिथि का अपमान!

''क्षमा करना देवि। आवेश में कुछ अनुचित कह गया।''

अहल्या ने भोजन की व्यवस्था की और सबने साथ बैठकर खाया। रात को सदानीरा ने वही विश्राम किया। प्रायः मुंह-अंधेरे वह जाने को तैयार हो गई। सोए शत का चुंबन ले, उसने पूछा, ''तो आचार्य से क्या कह दूं आर्य कुलपति?''

''मुझे स्वीकार नहीं।''

अहल्या, सदानीरा के साथ-साथ कुटिया से बाहर निकल आई। काफी देर तक वह चुपचाप चलती रही। आश्रम की सीमा पर आकर रुकी और बोली, ''सखी सदानीरा! मैं तुम्हारी और आचार्य की कृतज्ञ हूं कि तुम लोगों ने हमारा इतना हित साधा। सखी, मैं तुम्हें वचन देती हूं जैसे भी होगा, मैं कुलपति को भेजूंगी। यह हम सब के हित में है। उनके साथ शत भी आएगा। उन दोनों का ध्यान रखना। शत को तुम्हारे ही भरोसे भेज रही हूं। आज से वह तुम्हारा पुत्र हुआ बहन।''

अहल्या ने अपना माथा, सदानीरा के कंधे से टिका दिया। सदानीरा का कंधा भीगता रहा। उसका हाथ अनजाने ही अहल्या की पीठ को थपक, उसे सांत्वना-आश्वासन देता रहा। मुख से वह कुछ भी न कह सकी।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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