उपन्यास >> दीक्षा दीक्षानरेन्द्र कोहली
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दीक्षा
"हां स्वामि। यदि आप मेरे मोह में यहीं पड़े रहे...अहल्या का स्वर किसी अन्य लोक से आता व्या प्रतीत हो रहा था, ''तो इन्द्र बेदाग बच जाएगा। ऐसा पाप करके भी वह उसी प्रकार सम्मानित और पूज्य रहेगा। हम इसी प्रकार पीड़ित और अपमानित रहेंगे। उस दुष्ट को दंडित करने के लिए, मुझे कितनी ही असल यातना झेलनी पड़े, मैं सहर्ष झेलूंगी। आप जनकपुर जाएं। कुलपति का पद स्वीकार करें और इन्द्र को, दुष्ट देवराज को शाप दें...''
''अहल्या!''
''हां नाथ। यही एक मार्ग हमारे सम्मुख है। उसके पश्चात शत का शिक्षण हो। वह मिथिला-नरेश का राज-पुरोहित बने। इसके लिए, मैं यहां एकाकी तपस्या करूंगी और उस दिन की प्रतीक्षा करूंगी, जिस दिन यह समाज मुझे पवित्र मानकर आपके योग्य धर्मपत्नी की मान्यता देगा...''
गौतम ने अहल्या को नई अन्वेषक दृष्टि से देखा। अहल्या अपनी पीड़ा की अग्नि में जलकर भस्म हुई थी, उसका तेज जाग उठा था।
ऐसा तेज, उग्रता, दृढ़ता, गौतम ने अहल्या में पहले नहीं देखी थी। कितनी महिमामयी है अहल्या।...मन हुआ, आगे बढ़कर उसके चरणों पर अपना मस्तक रख दें, अथवा उसके चमकते भाल को चूम लें।
पर गौतम दोनों में से कुछ भी न कर सके। उन्होंने आगे बढ़कर अपना सिर अहल्या की गोद में रख दिया। अहल्या के हाथों ने गौतम के बालों को सहलाना, बिगाड़ना और संवारना आरंभ कर दिया।
''कहती तो तुम ठीक हो देवि।'' गौतम का स्वर अत्यन्त शांत था, ''मैं अपने लिए कुलपतित्व तथा ऋपित्व का लोभ त्याग सकता हूं। सब प्रकार के यश और सम्मान को छोड़ सकता हूं। शत के सुंदर भविष्य की उपेक्षा भी कर सकता हूं; पर दुष्ट इन्द्र से प्रतिशोध की तृष्णा नहीं त्याग सकता। पिछले इतने सारे दिनों में, लगातार इस विषय में सोचता रहा हूं, और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मैं अत्यन्त दीन और असहाय हूं। मैं इन्द्र के साथ समान धरातल पर नहीं लड़ सकता।...पर आज पाता हूं कि तुम मुझे बल दे रही हो, मार्ग सुझा रही हो। तुम समर्थ हो अहल्या। किंतु मैं अत्यन्त दुर्बल प्राणी हूं। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगा...''
''गौतम!'' अहल्या के स्वर में अद्भुत स्नेह था, ''दुर्बल न बनो प्रिय! एक परीक्षा हम दे चुके हैं, अब एक परीक्षा और है। यदि हम साहसपूर्वक इस परीक्षा में पूरे उतर गए, तो ही हम निष्कलंक हो पाएंगे। स्वामि, जब परीक्षा सम्मुख खड़ी हो, तो हम पीछे नहीं हट सकते...''
सहसा गौतम अपने भीतर अपूर्व शक्ति का अनुभव कर, उठ बैठे, ''पीछे हटने की बात नहीं है प्रिये। हमें स्वयं को निष्कलंक सिद्ध करना है। और...और...इन्द्र को दंडित भी करना है। पर उसका मूल्य?''
''मूल्य जो भी मांगा जाएगा, देना होगा स्वामि।'' अहल्या पूरी तरह दृढ़ थी।
''मुझे तुम्हारा अवधि-रहित वियोग सहना होगा?''
''हां।''
''शत को अपनी मां के अभाव में प्रौढ़ होना होगा?''
''हां।''
''तुम्हें इस वन में एकाकी, लांछित, असुरक्षित, तपस्यापूर्ण जीवन व्यतीत करना होगा?''
''हां।''
''अहल्या!'' गौतम का स्वर उत्साह-शून्य हो गया, 'भरे-पूरे आश्रम में, सब की उपस्थिति में तुम्हारे प्रति इतना अत्याचार हो गया, अब तुम यहां अकेली कैसे सुरक्षित रह पाओगी? क्या फिर कोई इन्द्र नहीं आएगा?''
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- तीन
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- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
- द्वितीय खण्ड - एक
- दो
- तीन
- चार
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- नौ
- दस
- ग्यारह
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