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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

''आप इन बातों का ध्यान रखकर निश्चय करें कि यह गम्भीर चीरा-फाड़ी आप कराना चाहेंगे अथवा नहीं? इसमे मृत्यु हो जाने का भय भी है और इतना भय मोल लेने पर भी कुछ परिणाम न  निकलने की सम्भावना भी है।"

डाक्टर की फीस और ऐक्स रे का मोल ढाई सौ रुपये लगे।

सूरदास ने इसमें कुछ अधिक रुचि नहीं दिखायी, परन्तु तार

केश्वरी देवी ने पूछ लिया, "इस सब पर व्यय कितना बैठेगा?''

''ऑपरेशन यहां नहीं, मौन्ट्रील में होगा। वहां मैं कुछ भी फीस नहीं लूंगा। इसके अतिरिक्त दवाईयों और नर्सिग इत्यादि का व्यय लगभग एक सौ डालर नित्य पड़ेगा और पूर्ण आपरेशन और छुट्टी मिलने में डेढ़ महीना लग जाने की सम्भावना है।''

''डाक्टर! आप वहां कब तक पहुँचेंगे?"

''मैं जून की पन्द्रह तारीख तक वहां पहुंचने का विचार रखता हूं।'' 

"आप अपना पता दे जाइये। हम आपको लिखेंगे।"

इस प्रकार निश्चय कर जब तारकेश्वरी देवी घर पर पहुँची तो सूरदास से पूछने लगी, "क्या चाहते हो भैया राम?''

''बहुत व्यय बैठेगा।"

''कुछ अधिक नहीं। बीस सहस्त्र रुपये के लगभग व्यय पड़ेगा।"

"पर माँ! क्या इस मूढ़ मति पुत्र की आंखें इतने दाम की हैं?"

"मैं दाम का विचार नहीं कर रही। मेरे पास इतने से बहुत अधिक है और मैं अपने पुत्र की आंखों का मूल्य इससे कहीं अधिक समझती हूं, परन्तु मैं दूसरी बातोंके विषय में विचारकर रही हूं। कष्ट बहुत होगा और उस कष्ट का कुछ परिणाम नहीं भी हो सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि बाईस वर्ष की प्रतीक्षा पर जो रत्न मिला है, उसके खो जाने का भी भय है।"

''इसका भी, माँ तुम ही विचार कर लो। मेरे लिये मरने का भय नहीं। मैं तो मरूंगा नहीं। मृत्यु वस्त्र बदलने के समान ही है।"

इस पर तारकेश्वरी गम्भीर हो गयी। सूरदास के विषय में अब सम्मति देने वाली धनवती वहां थी। वह तारकेश्वरीसे कम पढ़ी-लिखी होने पर भी ईश्वर पर अगाध श्रद्धा रखने वाली थी और पूर्ण परिस्थिति का ज्ञान होते ही वह बोली, "मैं अपनी सम्मति कल दूंगी।''

"अच्छा! कल क्या होगा?"

''मैं अपने भगवान् से सम्मति करूंगी।''

प्रियवदना हंस पड़ी और पूछने लगी, "वह कहाँ है! कहां जाकर उससे सम्मति करोगी?''

''मेरे हृदय में है। वहां जाकर ही उससे सम्मति की जा सकेगी।"

"वहां कैसे पहुंचोगी?"

''पैदल चलकर ही।"

प्रियददना खिलखिला कर हंस पडी। हंसते हुए उसने सूरदास से कह दिया, "भैया! यह आपरेशन मत कराना। इसमें लाभ की बहुत क्षीण आशा है और हानि तथा कष्ट तो स्पष्ट दिखायी देता है।''

''देखो बहन! हानि और लाभ की बात आप लोग विचारे कर ले। जहां तक कष्ट का प्रश्न हो मैं उससे घबराता नहीं। मैं मृत्यु से भी भयभीत नहीं। कारण यह कि कष्ट जीव को नहीं होता और न ही उसकी मृत्यु होती है। परन्तु ये बातें मेरे साथ सम्बन्ध रखती हैं। रुपये का व्यय और पुत्र तथा भाई को खो देने की बात आपसे संबंध रखती है। इसके उपरान्त तीनों मुख्य स्त्रियों में सूरदास से पृथक् बैठकर विचार होने लगा और सूरदास ने बम्बई में भी अपना संगीत का अभ्यास आरम्भ कर दिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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