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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 5 :

 

प्रकाशचन्द्र को अपने श्वसुर के मुख से प्रधानमंत्री और कांग्रेस वालों की प्रशंसा सुन प्रसन्नता नहीं हुई। वह दिन भर ससुराल में रहा, परन्तु उसने पुन: ज्योतिस्वरूप की बात नही चलायी। सायंकाल वह श्रीमती के साथ मोटर में बदायूँ लौटा तो मार्ग में ही श्रीमती ने पूछ लिया, "आज आप विशेष रूप में चिन्तित प्रतीत होते हैं।"

"हां।"

"क्यों?"

''तुम्हारे पिता के व्यवहार से।"

''क्या व्यवहार उन्होंने किया है जो आपको पसन्द नहीं आया?''

"वह बात धर पर नहीं हुई। घर के बाहर बैठक में हुई है। मैं पिताजी से यह कहने आया था कि ज्योतिस्वरूप ने धोखा दिया है। रुपया लेकर भी पटीशन करवा दी है। वे लगे कांग्रेस, श्री जवाहरलाल नेहरू और ज्योतिस्वरूप की प्रशंसा करने। उनकी बात से यह समझ थोथी है कि वह मुझ पर पटीशन होने से प्रसन्न हैं।"

"आप यह बताइये कि आपने यह निर्वाचन उनसे पूछकर लड़ा था?''

''उनसे तो नही पूछा।"

''तो फिर उनके कहने से आप निराश क्यों हैं?"

प्रकाशचन्द्र को इस युक्तियुक्त उत्तर से विस्मय हुआ। वह पूछने लगा, "श्रीमती। आजकल तो तुम बहुत मज़ेदार बातें करने लगी हो।" 

"क्या मज़ेदार बात की हे?"

"यही कि जब उनसे पूछकर निर्वाचन नहीं लड़ा तो उनके निर्वा- चन के विपरीत कहने पर चिन्ता के कुछ अर्थ नहीँ। इस पर भी मैं अपना लोक सभा का सदस्य बन जाना अनुचित नहीं मानता।"

''तो डटे राहेये जितनो देर आप डट सकते हैं। पटीशन हुई है हो इसका विरोध करिये। यदि जीत गये तो आपकी अभिलाषा पूर्ण होगी और यदि पटीशन में हार गये तो समझियेगा कि आप पहले ही हार गये थे।"

"पर इससे दुःख तो होगा ही।"

"तो उसे सहन करियेगा। कारण यह कि जो बात अपनें अधीन नहीं, उसके विषय मेँ चिन्ता करनी व्यर्थ है।''

प्रकाशचन्द्र देख रहा था कि श्रीमती जो तीन महीने पहले मृतवत् पड़ी रहती थी, एकाएक समझदारी की बातें करने लगी है।

घर पहुंचकर उसको पता चला कि सेठजी का पत्र बम्बई से आया है और उसमें लिखा है कि सूरदास

राम बम्बई में मिल गया है।

उसे वह बदायूँ लाने का विचार कर रहे हैं, परन्तु वह मान नहीं रहा। अब कमला भी उससे मिली है, परन्तु एक स्त्री जिसका नाम तारकेश्वरी है और जो अपने को सूरदास की मां कहती है, वह बाधा बन रही है।"

इस पत्र की बात सुन तो प्रकाशचन्द्र को पहले तो दुःख हुआ, परन्तु तुरन्त ही कुछ विचार करने पर उसे प्रसन्नता अनुभव होने लगी और उसकी हंसी निकल गयी।

''क्यों, हंसे क्यों हो?"

चन्द्रावती ने पूछ लिया।

''यही कि कमला का ठिकाना बन रहा प्रतीत होता है।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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