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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 8 :

 

कमला अपने कमरे को चली गयी। वहां कमरे के बाहर सुन्दरदास खड़ा था। कमला ने प्रश्न भरी दृष्टि में उसकी ओर देखा तो वह बोला,"बहनजी! एक बात कहनी है।"

कमला ने एक क्षण तक विचार किया और फिर कह दिया, ''नीचे बैठक घर में चलो, मैं आती हूँ।"

कमाला सुन्दरदास के सामने एक सोफा पर बैठ गयी और पूछने लगी, "सुन्दर भैया। बताओ, क्या बात है?''

''बहनजी! जब हम यहाँ से चलने ही लगे थे तो उन्होंने हेसा व्यवहार बनाया था कि मानों वह यहां वालों को अपने लक्ष्य स्थान का पता नहीं देना चाहते थे।

"माताजी का सन्देश मैंने दिया था कि उन्होंने हमारे जाने लिये अभी एक सौ रुपया दिया है और वह चाहती हैं कि हम बारह बजे की गाड़ी से बरेली चले रबायें। वह बोले, "बारह बजे तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। चलो अभी चले। वह जैसे बैठे थे वैसे ह्री उठ मेरे कंधे पर हाथ रख चल पढ़ें।

"मैंने कहा भी कि रात अन्धेरी है। वह कहने लगे कि यहां तो दिन में भी अंधेरा हो रहा प्रतीत होता है।

''मैंने अपना आशय समझाने का यत्न किया। मैंने कहा, सेठजी को कहकर स्टेशन तक मोटर ले लें तो अच्छा रहेगा।" भैया बोले हम स्टेशन पर नहीं जा रहे। हम बस के अड्डे पर चलेंगे। पर जब मैंने बताया कि आखिरी बस सांय छ: बजे छूट जाती है। तो बोले, पैदल चलेंगे। जाते-जाते थक जायेंगे तो रात किसी गाँव में अथवा सड़क के किनारे किसी पेड़ के आश्रय नींद ले लेंगे।

"मैंने पूछा था, भैया राम! घर से नाराज़ होकर जा रहे हो?' भैया का कहना था कि नाराज नहीं, अलिप्त होकर।

"जब हम हरिद्वार पहुंचे तो वह बोले, "संतजी के आश्रम पर नहीं चलेंगे।

हम सेठ सूरजमल की धर्मशाला कोचल पड़े। मैंने रिक्शा करने को कहा तो वह बोले, 'नहीं। पैसा बचाओ, अन्यथा तुम्हें लौटने में कठि- नाई होगी।'

''मैं तो उसी समय समझ गया था कि सूरदास भैया लौटने का विचार नही रखते। धर्मशाला में हमें एक खुले बरामदे में एक कोने में बैठने का स्थान बता दिया गया।

''हम वहां से गंगा स्नान के लिये गये तो सूरदास ने मुझे कहा कि स्नान के लिये धोती अंगोछा ले लो।

"मैंने पंद्रह रुपये में दो धोती, एक तौलिया, ले लिया। कुड हम गंगा घाट पर जाने लगे तो भैया ने पूछा, 'कितना रुपया शेष है?'

''मैंने बताया कि अभी पैंसठ रुपये और कुछ आने हैं। इस पर वह कहने लगे, 'पर्याप्त हैं।'

"मुझे भय लग गया कि वह कही प्रवाह न ले लें। इस कारण मैं सतर्क हो गया। एकाएक वह मुझसे बोले, 'देखो, कमला बहन से कहना कि मेरा विचार छोड्कर शीघ्र विवाह कर लें। मैं अब बदायूं नहीं जा रहा।'

"पर भैया!" मैंने कहा, सेठानीजी ने कहा था कि अपन पता लिखना और वह हमारा यहां ही प्रबन्ध करने आयेंगी।"

"देखो, उनको पता मत लिखना। व्यर्थ में कष्ट होगा।"

"बहनजी! मैंने स्नान करते समय उनको दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया और यथा सम्भव हाथ थामे रखा। स्नान कर वस्त्र पहन हम गंगा तट पर बैठ ध्यान, पूजा-पाठ में लग गये। हमें वहां बैठा देख कई लोग सूरदास को देखने खड़े हो जाते थे और फिर चले जाते थे। 

"जब वह पूजा समाप्त कर चुके तो वह बोले, 'जाओ, कुछ खाने के लिये ले आओ।

''मैं वहां से बाजार गया। आधा सेर पूरी बनवायी और सागभाजी डूनों में ले लौट पड़ा। जब वहां पहुंचा तो वह वहां नहीं थे। पहले तो कुछ देर उन्हें ढूंढता रहा। फिर एक तख्त पर बैठे पण्डे से पूछा, 'यहां एक सूरदास को बैठे छोड़ गया था। उनको कहीं जाते देखा है?"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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