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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 4 :

 

सुन्दरदास सूरदास से यह सुन कि उसका उससे संयोग समाप्त प्रतीत हो रहा है, दुःख अनुभव करने लगा था। उसे तो यह आशा लग रही थी कि उसके लिये जीवन भर का कार्य बना हुआ है। अत: वह सेठजी से बात करने के लिये हवेली की ऊपर की मन्ज़िल पर जा पहुंचा, परन्तु वहां मिल गयी चन्द्रावती। सुन्दरदास ने सूरदास की बात बतायी तो चन्द्रावती ने कह दिया, "सूरदास ठीक कहता है, परन्तु प्रश्न तो यह है कि सुन्दर उसके साथ जीवन भर रहना चाहता है अथवा नहीं? वह अभी उससे ऊब तो नहीं गया?"

"नहीं माताजी! उनकी राम-कथा और राम-भक्ति नित्य नये रूप में प्रकट होती है। मैं तो उनके साथ नौका में बैठा हुआ हूं। जैसे एक च्यूँटी नौका पर बैठी नदी पार कर जाती है वैसे ही मैं संतजी के साथ इस संसार-रूपी दुस्तर सागर को पार कर रहा हूं।"

''तब ठीक है। तुम आज रात की गाड़ी से ही उनको ले जाओ। जहां वह जाना चाहें, तुम साथ-साथ जाना और अब उनके साथ ही रहना। देखो, अभी तुम एक सौ रुपया ले जाओ और उनके साथ ही रहना। जब उनके रहने का ठिकाना बन जाये तो तुम पत्र लिखना। तुमको व्यय के लिये नियम से रुपया भेज दिया जाया करेगा और अपने बाल-बच्चों को रखने का प्रबन्ध कर लोगे तो तुम्हारी पत्नी और बच्चों को भी भेज दिया जायेगा।''

"और कहां ले जाऊ उनको?"

"जहां वह कहें। यदि कहीं ठिकाना न मिले तो पत्र लिखा। तब हम बता देंगे कि उनको कहाँ रहना चाहिये। उनके रहने का प्रबन्ध तो है, परन्तु उनकी इच्छानुसार ही होगा। वह कदाचित् अपने सेठ के मठाधीन सन्त कृष्णदास के यहां जाना चाहेगा। हम उनको मना नहीं कर सकते, परन्तु यदि वहां उनकी समायी न हुई तो लिखना। यहां से रुपये और अन्य सुविधाओं का प्रबन्ध होता रहेगा।"

''पर मां जी! परदेश में इतने वेतन में मेरा निर्वाह न हो सका तो?"

"अभी तो तुम्हारी पत्नी को मैं सुबह कुछ रुपये भेज दूंगी। पीछे तुम्हारा और सूरदास का समाचार आने पर सब प्रबन्ध ठीक-ठीक कर दूँगी। कदाचित् हम, मेरा अभिप्राय है कि मैं और सेठजी, उससे शीघ्र ही मिलने आयेगे।"

सुन्दरदास अति प्रसन्नचित्त नीचे उतर गया। उसने सूरदास से बात जब बतायी तो सूरदास ने एक क्षण नहीं लगाया और उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, "सुन्दर! चलो, अब यहां इस घर में एक क्षण भी रहना उचित नहीं।"

सुन्दरदास उसे इस प्रकार चलने को तैयार होते देख भौंचक्का रह गया। उसने एक बात पूछ ली, "राम भैया! यह सब सामान और फिर उसके ले जाने को गाड़ी तथा रात के समय आपके जाने के लिये सवारी?"

''कुछ नहीं चाहिये। यों तो पहने हुए वस्त्र भी नइाईं ले जाना चाहता था, परन्तु नंगा नगर में घूम नहीं सकूंगा। इस कारण इनको पहनने के लिये विवश हूँ।''

सूरदास ने हाथ फलाकर पुन: कहा, "कहां हो सुन्दरदास?''

विवश सुन्दरदास ने हाथ बढ़ाकर सूरदास का हाथ पकड़ लिया और कमरे से बाहर निकल पड़ा। हवेली के द्वार पर चौकीदार ने पूछा, "सुन्दर। कहां लिये जा रहे हो राय भैया को?''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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