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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 7 :

 

धनवती को इसका अवसर पहले मिला। अगले ही दिन धनवती आयी तो प्रियवदना भी वहां उपस्थित थी। वह धनवती को देख विस्मय और असंतोष में उसका मुख निहारने लगी। बात यह हुई थी कि उस दिन धनवती का कमरे में प्रवेश करते ही किसी वस्तु से पाव अटका तो खट से शब्द हुआ था और सूरदास का ध्यान छिन्न-भिन्न हो गया था और उसके मुख से निकल गया था, "कौन है?"

''मैं! आज द्वार में पायदान कुछ उठा हुआ था और उससे मेरा पांव अटक गया था। मैं गिरती-गिरती बची हूं।''

''ओह!" इतना कह सूरदास ने पुन: अपना अभ्यास आरम्भ कर दिया, परंतु प्रियवदना को संगीत में वह मिठास अनुभव नहीं हुई जो पहले हो रही थी। इससे प्रियवदना एकाएक माथे पर त्यौरी चढ़ा उठी और बाहर चल दी।

वैसे अभ्यास का समय भी समाप्त होने वाला था। पांच-चार मिनट तक और अधिक ध्यानावस्थित हो संगीत करने के उपरांत सूरदास ने तानपुरा भूमि पर लिटा दिया और खड़तालें हाथ से उतार कर रख दीं। मृदुला एक प्याला चाय ले आयी।

धनवती ने उससे चाय पीते हुए पूछ लिया, "राम! प्रियवदना की अब तुमसे सुलह प्रतीत होती है?''

''मां? क्या वह पहले कभी लडी भी थी?"

''वह तुम्हारे संगीत से असुविधा अनुभव करती थी न?"

''हां, परन्तु वह लड़ाई नहीं कही जा सकती। उसे पहले इसका स्वभाव नहीं था और अब स्वभाव बन गया है।"

''परंतु मुझे कुछ और सन्देह हो रहा है।''

"क्या?"

''वह तुमसे प्रेम करने लगी प्रतीत होती है। युवा लड़की और लड़के में प्रथम विमुखता और अनन्तर आकर्षण प्रेम का लक्षण ही सिद्ध हुआ है।"

''माँ! यह एक सुखद समाचार ही हो सकता है। बहन भाई में प्रेम होना स्वाभाविक ही है।"

धनवती को कुछ ऐसा समझ आया कि राम जन्म से अन्धा होने के कारण कदाचित् पति-पत्नी के व्यवहार को समझता नहीं। उसे उसके उस व्यवहार में सुख और रस की अनुभूति भी नहीं। इसी से वह इस सरलता से बात को स्वीकार कर रहा है।"

उसने समझा कि सूरदास को अब इस दिशा में कुछ ज्ञान प्राप्त करा देना ठीक होगा। उसने उसको पूछ लिया, "राम! जानते हो कि यह प्राणी की रचना कैसे होती है?"

''कुछ-कुछ ज्ञान तो है। एक बार की बात है। मैं अभी ग्यारह-बारह वर्ष की वयस् का रहा हूंगा। गुरु माधवदासजी के आश्रम की बात है। कृष्णदास ने एक रात मुझसे व्यभिचार करने का प्रयास किया था। उसने मुझे मिठाई खिलाने का प्रलोमन दे दिया। इस पर भी मुझे कुछ अटपटा सा लगा। मैं उससे छूटकर गुरुजी के कमरे में चला गया। उनकी जाग खुली हुई थी। कदाचित् वह अपने अभ्यास में लर्ग हुएथे। वह पूछने लगे, "क्या है राम?"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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