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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 2 :

 

प्रकाशचन्द्र नौ दिन तक लखनऊ में रहकर अपने नगर बदायू में जा पहुंचा। हवेली के बाहर पहुँच मोटरगाड़ी ने हॉर्न बजाया तो हवेली के नौकर-चाकर तथा प्रकाशचन्द्र के पिता लाला कौड़ियामल्ल द्वार पर आ खड़े हुए। स्वभावानुसार प्रकाशचन्द्र ने गाड़ी से उतर पिताजी के चरण स्पर्श किये और कहा, "पिताजी ! मैं आ गया हूं।"

"हां, देखा है। तुम्हारी मोटर का हॉर्न का शब्द तो विलक्षण है। दूर से ही पहचाना जाता है।”

सूरदास उतरा तो उसने भी प्रणाम किया और कह दिया, "पिताजी! मेरा स्वर भी पहचानते हैं न? मैं नयनाभिराम हूं।"

"ओह ! राम को तो मैं भूल ही रहा था।” सेठ कौड़ियामल्ल ने सूरदास की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा, "सुनाओ राम ! लखनऊ कैसा दिखायी दिया है?”

एक जन्म के अन्धे से इस प्रकार का प्रश्न निरर्थक था, परन्तु सूरदास ने इसे सार्थक बना दिया। उसने कहा, "पिताजी ! पूर्ण अन्धकार-युक्त था। हाथ पसारे दिखायी नहीं देता था। सुना था कि वहां बिजली के बड़े-बड़े हण्डे और ट्यूबें लगायी गयी हैं, परन्तु उससे तो अन्धकार अधिक ही हुआ प्रतीत हुआ है। वहां पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाला भास्कर दिखायी नहीं दिया।”

सब लोग चल पड़े थे। सूरदास का हाथ सेठजी ने पकड़ा हुआ था और सब भीतर जा रहे थे। सूरदास की प्रकाश की विवेचना सुन सेठजी मुस्करा रहे थे। उन्होंने पूछा, "तो तुमको वहां कुछ दिखायी नहीं दिया?”

"मैं तो सब कुछ देख रहा था। जहां हम ठहरे थे, वहां सुरा और सुन्दरी का वास था। वे दोनों काले साये की भान्ति अन्धकार को अधिक अन्धकारमय बना रहे थे।”

सेठजी गम्भीर हो गये। नौकरों के सामने उन्होंने सुरा-सुन्दरी के विषय में और कुछ नहीं पूछा। उन्होंने बात बदल कर पूछ लिया, "और यहां प्रकाश दिखायी दे रहा है क्या?”

"हां, पिताजी ! यहां तो सूर्योदय हो चुका है।”

"पर सूरदास अब तो सायंकाल हो गया है।”

"हां, कुछ को ऐसा भी लग सकता है। परन्तु पिताजी है यह प्रात:काल ही। जहां राम कथा और भगवत् भजन होता है, वहां प्रात: का सुखप्रद भास्कर सदा उदय रहता है।"

सूरदास ने अपने भाव को प्रकट करते हुए पुन: कहा, "भगवान् कालातीत है। जहां वह होता है वहां सूर्योदय ही रहता है। दिन और रात तो मनुष्य के अनुभव की बात है। पिताजी, लखनऊ में भगवान् के बिना मानव रहते हैं। अत: वहां सदा रात है।”

कौड़ियामल्ल सूरदास की इस प्रकार की भावपूर्ण बातें सुनने अभ्यस्त था और जब सूरदास ने अपने कथन का अर्थ तो सेठजी ने अश्वस्त हो पूछ लिया, "और सुरा-सुन्दरी कहां देखे थे?"

इस समय सेठजी सूरदास को उसके कमरे में ले गय थे। अन्य नौकर बाहर ही रह गये थे श्रौर प्रकाशचन्द्र अपनी माता, बहिन और पत्नी को मिलने के लिये हवेली की ऊपर की मंजिल पर चला गया था।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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