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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 3 :

 

इस बार प्रकाशचन्द्र बम्बई गया तो वहां से एक विचार लेकर आया था। वहां से आने के उपरान्त वह सायंकाल कथा सुनने गया तो उसे अपने विचारित कार्य में सूरदास एक महान सहायक समझ में आया।

कथा के उपरान्त हवेली के प्राय: घर के आदमी और उस समय काम से रिक्त नौकर-चाकर सूरदास के साथ-साथ लौट रहे थे। मार्ग मे आते हुए प्रकाशचन्द्र ने अपना विचार बता दिया, "राम! एक काम मेरा भी करना होगा।"

''भैया बताओ। मैं क्या कर सकता हूं?''

''मैं लोक सभा का निर्वाचन लड़ रहा हूँ।"

''वही जो दिल्ली मैं है और जिसमें देश का राज्य प्रबन्ध होता है?"

''हां, वही।''

''तो भैया, बन जाओ।''

''उसमें मतदान होगा। पांच वर्ष हुए तो मतदीब हुआ था। इस बार इस क्षेत्र से मैं खड़ा हुआ और यदि मेरे मुकाबले में कोई खड़ा हुआ तो मतदान होगा। लोगों को कहना होगा कि वे मुझे मत दें।" "यह तो बहुत अच्छा है। आप जैसे श्रीमान् को यत्न करना ही चाहिये।"

''पर तुमको मेरी सहायता करनी होगी।"

''मैं कैसे सहायता कर सकूँगा?"

''लोगों को कहकर कि वे मुझे अपना मत दें।"

''पर मैं तो राम का नाम लेना ही जानता हूं।"

''राम के नाम पर ही मत माँगे जायेंगे। महात्मा गांधी भी तो राम राज्य लाने की बात कहते थे और मैं राम का ध्वज उठाकर निर्वाचन लड़ूंगा।"

''तब तो ठीक है। मुझे अपने साथ ले चला करना। मैं राम नाम की धूम मचा दूंगा।''

''पक्की बात कहो। पीछे भाग न जाना।"

''नहीं भैया। ऐसा शुभ कार्य करने से न नहीं कर सकता।"

अत: जब निर्वाचन सम्बन्धी प्रथम यात्रा लखनऊ की करनी पड़ी तो प्रकाशचन्द्र सूरदास को साथ ले गया।

प्रकाशचन्द्र-सफल यात्रा कर लौटा। पिताजी ने उसे प्रसन्नवदन देख समझ लिया था कि कांग्रेंस का टिकट मिल गया है, परन्तु सूरदास के कहचे पर कि वहाँ अन्धकार था और सुरा-सुन्दरी का राज्य थड़ा सेठ को पहले तो पुत्र के नालायक होने पर सन्देह हुआ, परन्तु पीछे जब उसे ज्ञात हुआ कि यह वहां के अधिकारियों के विषय में सूरदास ने कहा है तो निश्चिन्त हो उसने कह दिया था, ''राजनीति में ऐसा होना ही है।"

सूरदास का कहना था, ''पिताजी! भैया भी तो इसी अन्धकार में कूदना चाहते है।"

''राम! मैं नित्य इन राजनीतिक जीवों में काम करता रहता हूँ और इनके सुख में टुकड़ा डालता रहता हूं। इस प्रकार अपना काम निकाला करता हूं। मैं स्वयं कुछ भी अनियमित बात नहीं करता। यह ठीक है कि इन पद धन और प्रतिष्ठा के भूखों ने जो नियम बना रखे हैं, वे अज्ञान के सूचक हैं। उनका मैं पालन भी नहीं करता, कर सकता भी नहीं। करूं तो इनका पेट भरने के लिए कुछ बचे ही नहीं। इस कारण मैं व्यापार के नैसर्गिक नियमों का ही पालन करता हूँ। मैं उनको ईमानदारी के नियम कहता हूँ। मुझे इनके बनाये नियमों को भंग करने में संकोच नही होता। मैं सफल रहता हूं। कारण यह कि मैं कभी भी इनर्को भांति भूखा-नंगा नहीं रहा।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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