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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 6 :

 

सूरदास का जर्मन के डाक्टर द्वारा निरीक्षण हो चुका था। घर को तीनों स्त्रियां एक मत नहीं थीं। प्रियवदना तो मृत्यु हो जाने के भय से इस आपरेशन के पक्ष में नहीं थी। धनवती समझती थी कि यदि ईश्वर को आंखें देनी होती तो वह पहले छीनता ही क्यों। उसके विधान में बाधा नहीं डालनी चाहिये। तारकेश्वरी के मन में कभी कभी यह बात आती थी कि यत्न तो करना चाहिये। यदि सूरदास की दुष्टि आ जाये तो बहुत अच्छा हो।

दो आपरेशन न कराने के पक्ष में थी। तारकेश्वरी कभी तो इसके लिये तैयार हो जाती थी और कभी डर कर चुप रह जाती थी।

जिस दिन प्रियवदना ने सूरदास को कहा था कि उसके बहुत प्रात: उठकर राम-रीला दूसरों की सुविधा में बाधक है, उसी सायंकाल सूरदास ने मृदुला से कहा था, "मृदुँला बहन! कुछ ऐसा प्रबन्ध नहीं हो सकता कि इस कमरे के चारों ओर भारी पर्दे लटक जायें?'

''क्या होगा उससे?''

''मेरे प्रात: संगीत का स्वर प्रियवदना बहन के कमरे तक नहीं पहुँचेगा।''

''इससे यह कैसे होगा?"

''जैसे कोई व्यक्ति रजाई में मुख छुपाये हुए बोले तो उसकी आवाज़ सुनायी नहीं देती।''

मृदुला को समझ आ गया। उसने कहा, "माताजी से पूछना पड़ेगा। वैसे आपके संगीत को रजाई उढ़ाने का प्रबन्ध तो यहां है।"

रात जब तारकेश्वरी दुकान बन्द कर आयी तो मृदुला ने सूरदास की समस्या समझा दी।

''पर मैं समख्ती हूँ कि इस प्रकार तो हम भी उसके संगीत से वंचित हो जायेगी। क्यों, तुमको भी कष्ट हुआ था क्या?" तारकेश्वरी देवी ने पूछा।

''नहीं बहनजी! मेरा कमरा तो यहां से दूर है।''

''तो प्रियवदना का कमरा भी दूर किया जा सकता है।"

अत: तारकेश्वरी और प्रियवदना के कमरे बदल दिये गये। प्रियवदना के पिक्चर से लौटने पर उसे इस परिवर्तन का ज्ञान हुआ तो उसने खाने के समय सूरदास से पूछ लिया, "भैया। मेरी बूआ से शिकायत की है न?"

''नहीं तो। मैं तो माताजी से अभी मिला हूँ। ये दुकान से आकर अपने कमरे में चली गयीं और अब खाने के समय ही इनका सामीप्य अनुभव हुआ।''

"पता है क्या हुआ है?"

''नहीं बहन।''

''मुझे घर के दूसरे कोने में कमरा दे दिया है और वह स्वयं अपने पुत्र के साथ वाले कमरे में आ गयी हैं।"

''ओह! तो यह बात है? देखो प्रियम्, राम ने शिकायत नहीं की। इसने तो मृदुला से कहा था कि कुछ ऐसा प्रबन्ध कर दिया जाये कि इसके कमरे को रजाई से ढांप दिया जाये जिससे कि इसके प्रात: कीर्तन से प्रिय बहन की नींद हराम न हो।''

तारकेश्वरी ने सफ़ाई उपस्थित कर दी, "यह बात तो मेरे मस्तिष्क की उपज है कि कमरे पर रजाई ओढाने के स्थान तुम्हारा कमरा दूर कर दिया जाये।''

''पर बूआ! मैं तो इसी कमरे में रहती हुई अपने सात घण्टे सोने की स्वतन्त्रता का भोग करने की इच्छा रखती हूँ।''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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