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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

तारकेश्वरी ने प्रियवदना को समझाया। उसने कहा, "मुझे राम का प्रात: का संगीत बहुत पसन्द आया है और मैं अपने को इससे वंचित रखना नहीं चाहती।''

''बूआ! मुझे कमरा बदलना पसन्द नहीं।''

"और किसी दूसरे की स्वतन्त्रता छीनना पसन्द है?"

''परन्तु वह समय सोने के लिये होता है।"

''कितने घन्टे सोना चाहती हो, प्रियम्?"

''सात घण्टे और सायं आठ बजे से प्रात: आठ बजे के भीतर किसी समय।''

"यह तो बहुत लम्बे काल की तानाशाही है। यह तानाशाही तब ही सहन की जा सकती है जब यह किसी दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधक न हो।''

''तो ऐसा करती हूँ कि मैं अपना कमरा "एयर कण्डीशंड'' करवा लेती हूं। तब इसकी दीवारे और द्वार, खिड़कियां जहां बाहर की शीत-गर्मी से अपारगम्य हो जायेंगी, वहां राम भैया के संगीत के लिये भी हो जायेंगी।"

''तो ठीक है। जब तक यह कमरा 'एयर कंडीशण्ड' नहीं हो जाता, तब तक के लिये उस कमरे में सो सकती हो।"

''तब तक मैं भैया की तानाशाही सहन कर लूंगी।"

तारकेश्वरी समझ नहीं सकी कि सूरदास के आने पर प्रियवदना क्यों असुविधा अनुभव करने लगी है। इस पर उसने सूरदास से ही पूछना उचित समझा, "क्यों राम? तुम क्या चाहते हो?"

"मैं तो बम्बई में अपना दम घुट रहा अनुभव कर रहा हूं।''

उत्तर तारकेश्वरी ने दिया, "अब बहिन धनवती आयी हैं और वह तुमको घुमाने के लिये ले जाया करेंगी। समुद्र तट पर तुम जाओगे तोजी भर कर स्वच्छ वायु का पान कर सकोगे। रही संगीत की बात। तुम अपनी चक्की पीसते जाओ। जिसके कानों को उसके शब्द स पीड़ा होगी, उसे अपने कानों मेँ रुई दे लेनी चाहिये।''

''बूआ! मैं कमरा नहीं बदलूंगी।'' प्रियम् ने कहा।

"तुम सब स्वतन्त्र हो। हां, मैं चाहती हूं कि तुम्हारी स्वतन्त्रता एक दूसरे की स्वतन्त्रता की घातक न हो। इससे बचने के लिये एक दूसरे के मार्ग में नहीं आना चाहिये।''

बात समाप्त हो गयी, परन्तु सूरदास विवश हो बम्बई और बदायूं में तुलना करने लगा। यहां सुख-सुविधा अधिक थी, परन्तु मानसिक अवरोध अनुभव होने लगा था। अवरोध तो वहां भी कत्पन्न हो गया था, परन्तु उससे। बच निकलने का साधन वहां मिल गया था। यहां के अवरोध से बच निकलने की आवश्यकता हुई तो उसे धनवती ही साधन समझ मैं आयी। इस पर भी वह विचार करता था कि वह स्थिति अभी उत्पन्न नहीं हुई।

उस रात की वार्त्ता के उपरान्त तारकेश्वरी के घर की स्थिति भी बदलने लगी। अब वह निरबाध अपने संगीत का अभ्यास और कीर्तन करने लगा था। आपत्ति करने वाली अब स्वयं प्रात: जाग कर उसके कमरे में आने लगी थी। दुकान को जाने का समय भी उसने बदल लिया था। वह मध्याह्न पूर्व के स्थान मध्याह्नोत्तर दुकान का काम करने लगी था।

उक्त वार्त्तालाप के कई दिन पीछे की बात है। एक दिन मध्याह्न के भोजन के उपरान्त सूरदास विश्राम करने के लिये प्रश्रय का आश्रय ले टांगे लम्बी करने लगा तो उसका पांव किसी से अटका। उसने सतर्क हो पूछ लिया, "कौन?"

''मैं।" प्रियवदना की आवाज़ थी।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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