उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 5 पाठक हैं |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
सेठजी ने निर्लेप भाव में कहा, "प्रतीत तो ऐसा ही होता है, परन्तु समय निकल जाये तो विचार करेंगे। प्रकाश, मैं अब तुम्हारी निर्वाचन में सफलता पर प्रसन्न नहीं हूं।"
''क्यों, पिताजी?"
"जो वस्तु भगवान् के नाम को विस्मरण कर अथवा विरोध कर प्राप्त की जाये, वह ग्रहण करने योग्य नहीं होती।"
"पिताजी! आज ज़माना बहुत आगे निकल गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन पृथ्वी पर का मानव अन्तरिक्ष में जा परमात्मा के अपने घर में पहुंच उसको दाढ़ी से पकड़ लेगा।"
''वह तो उसने अभी से पकड़ ली प्रतीत होती है, परन्तु इससे वह किसी प्रकार भी भयभीत नहीं अथवा किसी पर हर्ष शोक प्रकट नहीं कर रहा।''
''पिताजी! वहू होता तो प्रकट होकर प्रसन्नता अथवा रोष दिखाता। जब है ही नहीं तो प्रसन्नता, रोष कहाँ से प्रकट करेगा?"
कौड़ियामल्ल मुस्कराकर बोला, "तब तो यहाँ अंधेरगर्दी मचने वाली है।''
''हां, कुछ देर तक तो अव्यवस्था चलेगी, परन्तु पीछे कम्युनिस्ट सत्ता बनेगी और यहां शांति स्थापित हो जायेगी। दिल्ली में संसद सदस्यों के लिए एक पुस्तकालय है। मिस्टर सिन्हा ने मुझे वहां से एक पुस्तक पढ़ने को दी है और उसने बताया है कि इस प्रकार की सुख
और शान्ति श्री पण्डित जवाहरलाल भारत में भी स्थापित करना चाहते हैं।''
''हाँ! जब वह राम के विरूद्ध व्याख्यान दे गये थे तो मैं यही कुछ समझा था। उस समय भी मुझे कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यहां एक महान शमशान बनने वाला है।''
भोजनोपरान्त सेठजी प्रकाशचन्द्र, विमला और चन्द्रावती को लेकर बैठक घर में चले' गये। वहा बैठते हुए सेठजी ने पूछा, ''अब इसके विषय में क्या विचार रखते हो? मैंने इसके जन्म की कथा तुम्हें और इसे भी बता दी है।"
"र्म तो यह कोई कारण नहीं समझता कि हम इकट्ठे नहीं रह सकतै। मैं दूसरा विवाह नहीं कर सकता, अन्यथा इससे विधिवत् विवाह कर लेता।''
''ठीक है। यदि तुम पति-पत्नी के रूप में रहना चाहो तो मैं इसके जन्म का रहस्य गांठ बांधकर गुप्त रखने का यत्न करूंगा। इस समय तक तुम दोनों के अतिरिक्त इस रहस्य को केवल चार व्यक्ति जानते हैं। मैं, तुम्हारी माता, विमला की माता और शीलवती। मैं इनको राजी कर लूंगा कि ये बात को अपने मन में बन्द कर रखें।''
''बताओ, विमला! ठीक है?'' प्रकाशचन्द्र ने विमला को सम्बोधन कर पूछ लिया।
''मेरा मन नही मानता।''
''क्यों?''
''मैं समाज की अवहेलना और वह भी जीवन भर, कर नहीं सकूंगी।''
''तो क्या करोगी?''
''अभी विचार नहीं किया। कई मार्ग हैं जिन पर दृष्टि गयी है। गंगा माँ का पेट तो है ही। बम्बई का नरक कुण्ड भी है। एक यहाँ पिताजी का स्थान है; परन्तु यह तो उनकी इच्छा और अभिरुचि के अधीन है।''
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :