उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''मैं अपनें लिये विचार नहीं कर रहा। तुम्हारे विषय में ही विचार कर रहा हूं, परन्तु एक बात का तुमको विश्वास रखना चाहिये कि विवाह तुम्हारी रुचि और स्वीकृति के बिना नहीं होगी।"
इतना कह कौड़ियामल्ल मुस्कराता हुआ कमरे से निकल गया और कमला ने द्वार बन्द कर वस्त्र बदल लिये। कमला को कुछ यह समझ आया था कि लड़के वाले बहुत धनी-मानी व्यक्ति हैं और इसी लोभ में पिताजी फंस गये हैं। इस पर भी सेठ जी का आश्वासन उसको शान्ति देने वाला था।
वह सोयी तो प्रात: पांच बजे ही उठ सकी। पिछले दिन की लम्बी यात्रा के कारण वह थकी हुई थी। अत: नींद गहरी रही और किसी प्रकार के स्वप्न इत्यादि से भंग नहीं हुई।
शौचादि से अवकाश पा उसने जल्दी जल्दी-पूजा समाप्त की और बाहर आयी तो सेठ जी उसकी प्रतीक्षा ड्रायंग रूम, में कर रहै थे।
"शौचादि से निपट चुकी हो?" सेठ जी ने पूछ लिया।
"जी।"
''तो चलो, पहलेवह काम कर लें, जिसके लिये तुमको यहां बुलाया है। मैंने लड़के की मां को टेलीफोन किया था और उसने मुझे और तुम्हें भी प्रात: के अल्पाहार के लिये निमन्त्रण दे दिया है। एक प्याला चाय पी लें और फिर चल देगे। अल्पाहार के पहले लड़के की मां से तुम्हारा परिचय हो जायेगा। लड़के से बातचीत में सुविधा रहेगी।"
चाय और दो-दो बिस्कुट ले पिता पुत्री दोनों अपनी मोटर में "विमैनस कार्नर के बाहर जा पहुंचे। दुकान अभी बन्द थी। साढ़े सात ही बजे थे, परन्तु धनवती सीढ़ियों के नीचे उनकी प्रतीक्षा में खड़ी थी। जब सेठ जी और कमला गाड़ी सें उतरे तो वह गाड़ी के समीप आ हाथ जोड प्रणाम करने लगी। सेठ जी ने परिचय कराया, "यह हैं धनवती बहन। यह लड़के की पालन करने वाली माता हैं और जन्म दात्री ऊपर हैं। बहन, यह मेरी लड़की कमला है।''
धनवती का मुख कमला को देरवते ही गम्भीर हो गया। वह उसकी रूप-राशि से कुछ अधिक प्रसन्न नहीं हुई। इस पर भी वह चुपचाप इनको लिफ्ट से ऊपर तारकेश्वरी के निवास स्थान पर ले गयी। तारकेश्वरी उनका स्वागत करने के लिये लिफ्ट तक आयी थी। प्रणाम होने पर कमला ने अनुभव किया कि यह स्त्री अति सुन्दर है। इस समय अधेड़ आयु की प्रतीत होती है, परन्तु रूप-रंग में वह अपने में और उसमें कोई तुलना नहीं पाती थी। साथ ही उसने यह अनुभव किया कि वह भी मुस्कराती हुई गम्भीर हो गयी है।
सेठ जी ने कहा, "कमला! यह उसकी माता जी हैं। आओ।"
कमला अपने रूप-रंग का विचार कर यह समझ रही थी कि ये लोग उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते।
ये लोग ड्रायंग रूम में पहुंचे ही थे कि घर के एक कमरे से बहुत ही मधुर स्वर में किसी के गाने के शब्द सुनायी दिये। कोई गा रहा था
कनक महल छोड़ि क्यों अब परम कुटी छाऊं।
आश लगी प्रभु आवन की संतन संग सजाऊं।।
सूरदास मदन मोहन जन्म जन्म मैं गाऊं।
संतन की संगत की रक्षा सदा मैं पाऊं।।
तारकेश्री पूछ रही थी, "कब आयी हो बेटी?"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :