उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 5 पाठक हैं |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
सूरदास ने बात बदल दी। उसने पूछ लिया, "भैया तैयार हो गये हैं क्या?"
"नहीं भैया! अभी तो पाँच बजे है। चलने का समय सात बजे है। मैं तो समझा था कि आप सो रहे होंगे।"
"हां। मैं आज बहुत देर से जाग रहा हूं। आज इस कमरे में कोई आया था और उसके जाने के उपरान्त सो नहीं सका। जब बैठा बैठा थक गया तो शौचादि से निवृत्त हो पूजा-पाठ के लिये बैठ गया।"
"भैया! तिलक लगा दूं?
"हां, चन्दन घिसा हुआ है?"
"है।"
"तो ले आओ। आज मस्तिष्क गर्म हो रहा है। यह रात सो न सकने के कारण ही प्रतीत होता है।"
"कमरे की दीवार में लगी अल्मारी खोल सुन्दरदास ने एक कटोरी में घिसा चन्दन रखा निकाल लिया और उसमें दो बूंद जल डालने के लिये "बाथ रूम" में चला गया वहां से चन्दन घोलता हुआ ले आया।
"जब सुन्दरदास तिलक दे चुका तो सूरदास ने कहा, "आज कुछ कनपटियों पर भी लगा दो।"
"भैया! आपका शरीर तो तप रहा है। ज्वर प्रतीत होता है।"
"नहीं, यह ज्वर नहीं है। मै सर्वथा स्वस्थ हूँ। यह भी कह दूँ कि नित्य से अधिक स्वस्थ और सजग हूँ तो ग़लत नहीं होगा।"
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :