उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
“परन्तु शर्माजी, गांधीजी ने सन् 1942 के उपरान्त तो कोई आन्दोलन चलाया नहीं और जब से मैं सज्ञान हुआ हूं तब से तो स्वराज्य चल ही रहा है। अत: यदि मैं स्वराज्य प्राप्ति में कुछ योगदान नहीं दे सका तो इसमें मेरा दोष नहीं। दोष अग्रज का है। वे हड़बड़ी में सन् 1947 में ही भाग खड़े हुए। यदि चार-पांच वर्ष और रह जाते तो प्रकाशचन्द्र को भी दो हाथ दिखाने का अवसर मिल जाता
"मेरा तो प्रश्न था, "शर्माजी ने कहा, "आपके किस गुण के कारण इतनी बड़ी जिम्मेदारी का स्थान आपको दिया जाये?"
"गुण तो बहुत हैं। कुछ गुण तो इतने श्रेष्ठ हैं कि उस समय यदि मैं एक सौ हन्डे भी तोड़ देता तब भी इन गुणों की तुलना में वे कम रहते। मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं। आप बताइये कि आपको इस वर्तमान युग में किन गुणों की आवश्यकता है?”
अब शर्माजी ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, "कितना धन लगा सकते हैं अपने निर्वाचन पर?"
"आप बताइये, आप मुझ जैसे व्यक्ति से क्या आशा रखते हैं?"
"आपके निर्वाचन क्षेत्र में विधान सभा के कितने क्षेत्र हैं?"
मुंशीजी बता रहे थे कि आठ हैं।”
"हाँ, हमारा अनुमान है कि इन आठ क्षेत्रों में सोलह लाख तो व्यय हो ही जायेगा। कुछ ऊपर के लिये भी चाहिये। सब मिल मिला कर अभी आपको बीस लाख व्यय करने को तैयार रहना चाहिये। इतना व्यय करने के लिये जेब में हो तो स्वराज्य प्राप्ति में एक हण्डा फोड़ने का योगदान कई सहस्र गुणा प्रावर्धित किया जा सकता है।”
"ऊपर चार लाख किस प्रयोजन के लिये आप चाहते हैं?"
"दो लाख तो कांग्रेस के ‘जनरल फ़ण्ड' के लिये चाहिये। इसके अतिरिक्त दो लाख नेताओं के चाय-पानी के लियें।"
"दो लाख चाय-पानी के लिये, कुछ अधिक नहीं है क्या? वह कैसी चाय है शर्मा साहब?”
"भाई अग्रवाल! लोक सभा के लिये टिकट तो केन्द्रीय बोर्ड देता है। यह ठीक है कि सिफ़ारिश तो मैं ही करूंगा, परन्तु मेरी सूखी सिफ़ारिश सफल हो नहीं सकती। उसे भिगोकर ही उपस्थित किया जायेगा।
"आप जानते हैं कि नई दिल्ली के अशोक होटल में एक व्यक्ति की एक समय की चाय के लिए दस रुपये व्यय बैठ जाते हैं और कहीं रात के खाने के समय सिफारिश करनी पड़ी तो एक दो...।” शर्माजी कहते-कहते चुप कर गये। प्रकाशचन्द्र एक-दो का अर्थ समझ नहीं सका। अत: वह शर्माजी का मुख देखता रह गया। शर्माजी को कुछ संकेत करना आवश्यक हो गया। शर्माजी ने झिझकते-झिझकते कहा, दाम से दस गुणा तो 'एक्साइज डयूटी' लगती है।"
प्रकाशचन्द्र मुस्कराकर बोला, "ठीक है। मैं समझ रहा हूं। अर्थात् आपका अनुमान है कि बीस लाख व्यय करना एक गुण है? इतना प्रबन्ध हो जायेगा। और बताइये?"
"शेष मैं सब स्वयं समझ लूंगा।”
"तो कब तक पता चल जायेगा?"
"किस बात का पता चाहते हैं?"
"यही कि आपकी संस्था का टिकट मिलेगा अथवा नहीं?"
"मिल जायेगा। आप दो लाख रुपया नकद सौ-सौ रुपये के नोटों में सक्सेना के पास जमा करा दीजिये। जिस दिन आप यह जमा करा देंगे, उसके एक सप्ताह के भीतर टिकट मिल जायेगा।"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :