उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
सूरदास को राजनीति में रुचि तो थी, परन्तु वह अभी अपने को इस क्षेत्र में सर्वथा नवीन प्राणी समझता था। इस कारण वह चुप रहा।
सेठजी कमरे से निकले तो परिवार के अन्य लोग भी निकल गये। इस समय सुन्दरदास आया और सूरदास के समीप बैठ धीरे धीरे कहने लगा, ''भैया। कमला ने पुनः कहा है कि रात को आपके कमरे का द्वार खुला रहना चाहिये।"
''वैसे तो वह ठीक कहती है कि खुली हवाकमरे में आनी चाहिये। परन्तु.........।''
सूरदास चुप कर गया सुन्दरदास सूरदास के कहने की प्रतीक्षा करता रहा। आखिर सूरदास ने कहा, "परन्तु द्वार बन्द रहना चाहिये।''
''भैया! मुझे इस लड़की की आंखों में शरारत दिखायी देती है।"
''अच्छा! मैं तो देख नहीं सकता। कैसे समझे हो कि यह किसी प्रकार की शरारत करना चाहती है?'' सूरदास भी गम्भीर हो धीरे धीरे बात करने लगा।
''आज आपको तिलक लगा गयी है न। इसका अर्थ मैं यह समझा हूँ कि वह आपको वर गयी है।''
"वह क्या होता है।''
सुन्दरदास ने समझा कि सूरदास को कुछ ज्ञान कराना चाहिये। उसने कहा, "लड़कियां तिलक अपने पति को लगाती हैं। जानते हो भैया, पति-पत्नी का किस प्रकार का सम्बन्ध होता है?''
"मुझे इन बातों का ज्ञान नहीं। मैंने अभी विवाह नहीं किया।"
"वैसे तो इन बातों को कोई सिखाता नहीं। परमात्मा ही सबको यह व्यवहार सिखा देता है। देखो भैया! मेरा जब विवाह हुआ था तो मैं नहीं जानता था कि पत्नी का प्रयोग क्या होता है? मेरी मां ने हम दोनों को एक कोठरी में इकट्ठे सुला दिया। मेरी पत्नी भी मेरे समान ही बुद्धू थी। वह यह तो जानती थी कि पति-पत्नी एक ही कमरे में सब परिवार से पृथक सोते हैं, परन्तु वह यह नहीं जानती थी कि क्यों ऐसा करते हैं?
"पहली रात तो जब मां कमरे से बाहर निकल कमरे के किवाड को बाहर से कुण्डा चढ़ा गयी तो हम पति-पत्नी एक दूसरे का मुख देखने लगे। मेरी पत्नी हँसकर चुप कर रही। मैंने पूछा, "हँसी किसलिये हो?''
"वह बोली, "विवाह की अन्य अर्थहीन रीतियों की भान्ति यह भी है।''
मैंने कहा, "एक बात तो है। बाहर मैं तुम्हारे मुख को भली भान्ति देख नहीं सका था। तुम घूँघट काढ़े हुए थीं।''
''तो अब देख लीजिये।'' उसने कहा।
''कमरे में एक ही खाट थी। हम उसपर लेटे तो फिर परस्पर बातें होते-होते हम पति-पत्नी बन गये। मेरे विवाह को दस वर्ष हो चुके हैं। मेरे दो बच्चे हैं। एक लड़की और एक लड़का।''
सूरदास गम्भीर हो बैठा रहा। सुन्दरंदास ने पूछा, "तो भैया,
द्वार खुला रहे?"
"नहीं।" सूरदास ने कहा, "मैं स्वयं भीतर से बन्द कर लूँगा।''
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :