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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

"तो सुनो। जब तुम मेरे मन की भावना बदलने में सफल हो जाओगी, तब मैं भी इस समय की स्मृति को विस्मरण कर दूंगा और नवीन रूप में तुमको देखने लगूँगा। परन्तु कमला बहन! अभी तो तुम मेरे मन में बहन ही हो।"

''मैं आपसे एक वर मांगने आयी हूँ।"

''पहले तपस्या करो। जब तुम्हारी तपस्या से कोई प्रसन्न हो जायेगा तब वह तुम्हें वर देगा। फिर मांग लेना। तुम तो घोडे के आगे गाड़ी लगाने की बात कर रही हो।"

"तो मैं तपस्या करूंगी।"

''मैं कैसे मना कर सकता हूं?''

''अच्छा, मैं पुन: आपसे मिलूंगी।"

''मैंने यहां आने से किसी को मना नहीं किया।''

एकाएक कमला ने सूरदास के चरण छूकर हाथ अपने माथे को लगा लिए। सूरदास ने आशीर्वाद दे दिया, "सौभाग्यवती रहो।"

कमला उठी तो शीलवती भी उठ पड़ी और दोनों कमरे से निकल गयीं। जब वे चली गयीं तो सुन्दरदास आ गया। उसने आवाज़ दे दी, "भैया! मैं सुन्दरदास हूँ।"

"हां। कुछ काम है क्या?"

"आज सेठजी की आज्ञा हो गयी है कि मैं और घर में रहने वाले सब अन्य लोग मकान खाली कर दें।"

"क्यों?"

''आज्ञा देने वाला हवेली का जमादार था। उसने हमको पृथक-पृथक मकानों में जाकर रहने के लिये कह दिया है। मुझे अपनी पत्नी और मां के साथ मास्टर जौ के बराल में दो कमरे दे दिए हैं।"

''तो अब तुम मेरे और भी समीप हो जाओगे।"

''वैसे तो मैं आपके बगल के कमरे में रहा करता हूँ। कभी-कभी ही अपनी पत्नी की संगत के लिए घर पर जाता हूं। पर भैया! जमादार कह रहा था कि हमारे मकान को गिराकर वहां आपके लिए पृथक मकान बनेगा।''

''जब बनेगा तब देख लेंगे। यदि रहने योग्य न हुआ तो नहीं रहूँगा।''

''तो कहां चले जाओगे?''

"यह तब विचार कर लूंगा।"

''मैं समझता हूँ कि आपको हवेली से निकाल देने में कमला बहन कारण है।"

''मैं भी कुछ ऐसा ही समझता हूं, परन्तु यह श्रम है उनका कि उस घटना में मैं सहायक हूँ। इस पर भी सुन्दर, मैँ सेठजी की दान-दक्षिणा पर पलने वाला उनसे नाराज़ नही हो सकता।"

''मैं समझता हूँ कि आपके जीवन की कठिन घड़िया आने वाली हैं।''

''सुन्दरदास! तुम चिन्ता न करो। मैं तो भगवान् के भरोसे हूँ। वह जिस बिधि रखेगा, वैसे ही रहूंगा।"

ऊपर की मंजिल पर अल्पाहार लेने के लिए खाना खाने के कमरे में जाते ही प्रकाशचन्द्र ने अपने पिता से पूछ लिया, "पिताजी। शारदा रानी के पौत्र भागीरथ को तार दे दिया है?"

''हां, और मैंने सुन्दरदास वाला मकान खालो करा उसको नये सिरे से बनवाने की आज्ञा दे दी है। मैं चाहता हूं कि मकान एक महीने में तैयार हो जाये और सूरदास उस मकान में जाकर रहे।"

"यह तो ठीक है, परन्तु आप जो कुछ कर रहे हैं, वह निष्फल हो जायेगा।"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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