उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''आओ, कमला। तुम्हारी बात ही हो रही है।"
"पर भैया। लोक सभा की सदस्यता के लिये भाग-दौड़ तो तुम कर रहे हो।"
श्रीमती ने बातों का सूत्र अपने हाथ में लेते हुए कहा, "कमला। तुम्हारे विवाह की बात हो रही है।"
"भाभी। मैंने अध्यापिका बहन से अपने मन की बात बता. दी है। मांजी उनसे पूछ ले।"
''उसने बतायी है।" माँ ने कहा, वह स्वीकार नहीं की। तुम्हारे भैया भी इसे पसन्द नहीं करते। तुम्हारे पिताजी तुम्हारे कारण ही सूरदास को घर से निकाल देने वाले हैं। यदि तुमने उसका विचार नहीं छोड़ा तो उसको नगर से भी निकाल देंगे।''
कमला मौन रही और सबका मुख देखती रही। इस पर श्रीमती ने अपनी सास से पूछा, "पर मांजी। आपने तो भागीरथ को भी अस्वीकार कर दिया है। मुझे आशा नहीं कि कमला के भाई भी उसे स्वीकार करें।"
''पर संसार में भागीरथ के अतिरिक्त और कोई लड़का ही नहीं रहा क्या?"
अब कमला से नहीं रहा गया। उसने पूछ लिया, "तो क्या रामजी संसार में नहीं हैं? वह भी तो एक हैं और मैं......।''
चन्द्रावती ने बात बीच में ही टोक कर कह दिया, 'उसकी आंखों का अभाव किसी भी भान्ति पूरा नहीं हो सकता।"
''हो तो रहा है। साठ रुपये मासिक का नौकर सुन्दर उनकी आंखों का कार्य कर रहा है। यदि कुछ त्रुटि रह गयी तो वह मैं पूरी कर दूंगी।"
''मैं इसे अन्धेरे मे छलांग लगाने के समान समझता हूं।" प्रकाश चन्द्र का कहना था।
कमला ने मुस्कराते हुए कहा, "भैया। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो चक्षु रखते हुए भी अन्धेरे में छलांग लगा रहे हैं। मैं तो आखें रखते हुए अन्धकार में घुस प्रकाश ढूँढ़ रही हूं। एक अन्धे को अन्धकार में प्रकाश मिल भी गया तो भी वह उससे लाभ नहीं उठा सकेगा। अन्धों को तो प्रकाश और अन्धकार समान ही लगने चाहियें। इस कारण उनका तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।''
"कमला। प्रश्न तुम्हारा है, किसी अन्धे का नहीं। तुम चक्षु रखते हुए भी और देखते हुए कि अन्धकार है, फिर उसमें क्यों कूद रही हो?''
"दादा। यह सम्भव है कि उस अन्धेरी कोठरी में कहीं दीपक रखा हो और वह आंख वाला दीपक को ढूंढ़कर उससे प्रकाश कर अन्धेरे को छिन्न-भिन्न कर सके, परन्तु अन्धे के लिये तो कुछ भी आशा नहीं।''
''अभिप्राय यह है कि तुम तो अपना मार्ग ढूंढ़ सकोग, परन्तु सूरदास के लिये कुछ भी आशा नहीं।"
''मेरी दृष्टि में वह अन्धे नहीं हैं। उनमें एक अर्न्तचक्षु है जो बाह्य चक्षुओ से अधिक दूर और अधिक स्पष्टता से देखता है।''
"यह व्यर्थ है।'' चन्द्रावती ने बातों में हस्तक्षेप करते हुए कहा। "तो माँ। तुमको जो अर्थयुक्त प्रतीत हो वह करके देख लो।''
चाय का समय हो गया था। मां ने पूछा, "यहां ही चाय मंगवा लें?''
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :