उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''परन्तु बहन शब्द सुन मुझे कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि मैं आकाश से घसीट कर भूमि पर पटक दी गयी हूँ। मैं धूलि में मिल जाना नहीं चाहती।"
''परन्तु तुम तो पत्नी बनना चाहती हो न?''
"वह माता-पिता के अधीन है परन्तु यह आत्मा-आत्मा का सम्बन्ध तो उनके प्रबन्ध के अतिरिक्त है। इसमें मैं अपने को स्वतन्त्र अनुभव करती हूँ, आपको इस सम्बन्ध के लिये तैयार करने के लिये ही कहती हूं कि सखा-सखी का भाव भाई-बहन से प्रधिक उच्च स्तर का होगा।"
''ठीक है कमला। परन्तु शरीर भी तो साथ में लगा है। शरीर को शरीर से बहन-भाई का सम्बन्ध रखने दो। मैं आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध भी अनुभव करता हूं। तुम इसको सखा-सखी का नाम देती हो। यह भी ठीक है। दोनों बातें पृथक्-पृथक् है। मैं तो यह कह रहा हूं कि शरीर का सम्बन्ध भाई-बहन से पति-पत्नी में बदलना कल्याण का सूचक प्रतीत नहीं होता।"
"इस विषय में आप निश्चिन्त रहें। मैंने आपसे कहा है कि इसके लिये में त्याग और तपस्या कर रही हूं और वह जब फल लायेगी तब लायगी। तब तक सखा-सखी भाव ही ठीक रहेगा।"
"तो ऐसा करो। जब यहां कमरे में कोई न हो तो तुम यहां मत आया करो और यदि आयो तो तु रन्त चली जाया करो।"
"हां, यह युक्तियुक्त बात है। भविष्य में यही होगा और तब तक यह व्यवहार चलेगा जब तक दूसरा शारीरिक सम्बन्ध नहीं बन जाता।"
इजके अनुरूप ही कमला कभी आती थी तो चुपचाप चरण स्पर्श कर देती थी और कभी सूरदास कहता 'कमला हो' तो वह कह देती, जी''
आज वह शीलवती से पढ़ने गयी तो उसने पाठ पढ़ने के उपरान्त पूछ लिया, "बहनजी आपने मेरा सन्देश माताजी को दिया है क्या?''
''हां।"
"और उन्होंने क्या कहा है?'
''वह कहती थी।" शीलवती ने विचारकर माँ के वचनों को अधिक से अधिक मीठा बनाने के लिये कह दिया, "कि कमला बेटी का विवाह एक चक्षुविहीन से नहीं हो सकता। इसमें लड़की को जीवन भर पश्चात्ताप के लिये यंत्रणा सहन करनी पड़ेगी। और वह हमें इसके लिये कोसती रहेगी।"
कमला यह निर्णय सुन भौंचक्की हो मुख देखती रह गयी। वह गम्भीर विचार में पड़ गयी। शीलवती इस निर्णयात्मक बात का प्रभाव जानने के लिये उसके मुख पर देखने लगी। आखिर कमला ने कहा, "बहनजी। ठीक है। यह शरीर माता-पिता की देन है। वे इसको जहां चाहें ठिकाने लगा सकते हैं, परन्तु मैं तो शरीर नही हूँ। मैं उनकी देन भी नहीं हूं। इससे, मुझ पर उनका अधिकार मैं नहीं मानती। रही उनके चक्षु विहीन होने की बात, सो मैं नहीं मानती। उनके इन बाह्य चक्षुओं से कहीं अधिक प्रकाशमान अन्तर्चक्षु खुले हैं और वे हम सबसे अधिक स्पष्ट रूप में संसार को देखते हैं।"
''तो जिससे भी तुम्हारा विवाह तुम्हारे माता-पिता करें मान जाओगी?"
''मैंनेयह नहीं कहा। न ही मेरा यह अभिप्राय है। यह शरीर उनका है, इस शरीर का समापन वे कर सकते हैं; परंतु बहनजी! बिना मेरी इच्छा के यदि मेरा शरीर देंगे तो मैं इसे छोड़ दूंगी। इस पर अपना दावा नहीं रखूंगी।"
इस पर शीलवती परेशानी अनुभव करने लगी। वह इसे आत्म-हत्या करने की घोषणा समझी थी। उसने कुछ विचार कर पूछा, "तो तुम यह बात भी अपनी माताजी से कहलवाना चाहती हो?''
"मुझे इसके कहलवाने में रुचि नहीं। मैं जो कुछ उनको सूचित कराना चाहती थी, वह मैंने मध्याहनोत्तर कहलवा दिया था।"
शीलवती इस सबका अर्थ समझती हुई खिन्न मन से अपने घर चल दी।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :