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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

तार मिलते ही तारकेश्वरी नीचे आयी और टेलीफोन से दिल्ली जाने के लिये 'प्लेन' में सीट बुक करने लगी। सीट बुक होते ही उसने प्रियवदना से कहा, ''प्रियम्! मैं हवाई जहाज के कार्यालय पर जा रही हूं और तदनन्तर हरिद्वार जाऊंगी। कुछ दिन लग जाने सहज हैं। काम की देखभाल तुम्हारे जिम्मे हैं।''

''बूआ। यह राम कौन है?"

''मिल गया तो आकर बताऊंगी। अभी तो निश्चय करने जा रही हूँ।''

प्रियवदना थी तो चंचल स्वभाव की, परन्तु इस समय धैर्य से प्रतीक्षा करना उचित समझ चुप कर रही।

जब तारकेश्वरी टैक्सी से दुकान के बाहर उतरी तो दुकान खुली थी और ग्राहक आने लगे थे। इस पर भी प्रियवदना अपने स्थान से उठ बाहर आ गयी और बूआ को एक सुन्दर युवक को हाथ से पकड़ टैक्सी से उतारते हुए देरव चकित रह गयी।

युवक सुन्दर और चक्षु युक्त दिखायी दिया था, परन्तु वह हाथ पकड़े हुए और पांव से टोह-टोह कर चल रहा था। यही प्रियवदना के विस्मय का कारण था।

उस समय तो कुछ बात नहीं हुई। तारकेश्वरी सूरदास को लेकर लिफ्ट से तीसरी मञ्जिल पर जा पहुंची और उसे एक सुन्दर सुसज्जित एवं सुख-सुविधा सम्पन्न कमरे में जा बैठाया। साथ ही उसे वहां की सब वस्तुओं का, कहां-कहां रखा है, का परिचय दे, स्वयं भोजन की व्यवस्था करने चली गयी।

सूरदास अनुभव कर रहा था कि सेठ कौड़ियामल्ल की हवेली में वह एक संत ब्रह्मचारी के रूप में रहता था। उसके सोने के लिये एक तख्त था, बैठने को भूमि पर दरी, जाजम इत्यादि थे और दीवार में एक अलमारी कपड़े रखने को थी। तानपुरा और करताल के अतिरिक्त गुसलखाने में तौलिया, तेल, साबुन और इससे अधिक कुछ नहीं था। इस स्थान पर उसे समझ आया कि लखनऊ के कालैंटन होटल से कहीं अधिक सामान है।

सूरदास समझ रहा था कि यह कार्लटन होटल से कहीं अधिक सुख-सुविधा सम्पन्न स्थान है। उसे पता चला कि यहां वह एक सम्पन्न परिवार के प्राणी के रूप में रखा जा रहा है। वह एक गृहस्थ के घर में अपने को पदार्पण करता अनुभव करता था। उसने अभी तक तारकेश्वरी से उसके परिवार सम्बन्धी एक भी प्रश्न नहीं पूछा था। अभी तक वह मां थी और यह पुत्र। इसके अतिरिक्त सब अन्धकार था। उस अधकार में अब यह सुखप्रद कमरा अनुभव में आया।

अभी वह विचार ही कर रहा था कि वह प्रकाश की ओर अग्रसर हो रहा है अथवा अंधकार की ओर कि एक स्त्री की आवाज आयी, "भैया! जल पियेंगे?"

''हां! पकड़ा दो बहन।" स्वभाववश सूरदास ने कहा और हाथ बढ़ा दिया। एक कोमल हाथ उसको लगा जिसने उसके हाथ में एक शीतल पेय पकड़ा दिया। वह प्रात: का अल्पाहार तो हवाई जहाज में ले आया था और वहां तारकेश्वरी ने उसको खाने में सहायतमुदी थी। यहां यह कोई नया जीव था। सूरदास ने गिलास पकड़ लिया और पूछ लिया, ''क्या नाम है बहन?"

''मृदुला। देवी की सेवा में हूं।"

''तो तुम्हरे कार्य की वृद्धि में कारण हो रहा हूं?''

''भैया! मुझे प्रसन्नता हो रही है।"

''सत्य? इसमें क्या कारण हो सकता है?"

''आप कोई साधु संत प्रतीत होते हैं।"

''यह देखने मात्र से कैसे पता चल गया है?''

''आपके गले में रूद्राक्ष की माला, माथे और कानों पर चंदन का लेप तथा धोती-कुर्ते पहने होंने से।"

"बहुत भोली हो बहन। संत साधु बनने के लिये इससे बहुत अधिक लक्षणों की आवश्यकता है।"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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