उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 5 पाठक हैं |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''वह राम और राम कथा को कोमने लगा। मुझे वह घर में अपशकुन मानने लगा और पिता को विवश करने लगा कि मुझे घर से निकाल दे। मैंने यह विचार किया कि उनके घर से सम्बंध विच्छेद कर दूं। कदाचित् लड़की के गले में भी एक अंधे के स्थान पर कोई धनी-मानी उसका परिवार चलाने के लिये मिल सकेगा!"
''पर यदि उसकी लडुर्को ने तुम्हारे वियोग में आत्महत्या कर ली तो?"
"पर माँ! मैं अपने को इतनी बड़ी सम्मोहन को वस्तु नहीं समझता कि कोई लड़की जिसके पिता उसके कारोबार मैं सहयोग पर एक सहस्र रुपया मासिक वेतन दे सकते हों, वह मेरे लिये आत्म-हत्या कर लेगी।"
"राम बेटा। तुम अपने को नहीं जानते। तुम्हारे पास वे आंखें नहीं हैं जो संसार के पास हैं। इस कारण यह तुम नहीं समझते।"
"पर मैं इसमे क्या कर सकता हूं?''
"परन्तु प्रियवदना में भी कुछ वैसी ही भावना उत्पन्न हरे रही हे जो उस सेठ की लड़की में उत्पन्न हो रहो थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यह भी तुम्हारी दिनचर्या में कोई छिद्र ढूंढ रही है और उसको पाते ही वह भी तुम्हारे बिस्तर में आ घुसेगी और मुझे विश्वास है कि यह तुम्हें समय से पूर्व नहीं छोड़ेगी और तुम समय पाकर एक पारेवार के पिता बन जाओगे।"
''पर वह तो सम्बध में बहन लगती है?''
''हां। इस कारण उस उन्माद के उत्पन्न होने से पहले ही तुमको सचेत करने आ गयी हूं।"
"माँ!" सूरदास ने गम्भीर हो पूछ लिया, "क्या मुझे यह घर
भी छोड़ देना चाहिये।"
''ऐसा सुख तुम कहां पाओगे?''
''बदायूं में इससे कम शुख नहीं था। वहां एक अन्य बात थी। नित्य सायंकाल दो घण्टा भर सार्वजनिक राम कथा और कीर्तन होता था और मैं अपने जीवन को सार्थक हो रहा अनुभव करता था।"
"तो फिर वहां जाना चाहोगे?''
''परंतु यहां दूसरी माँ जब पीठ पर हाथ फेर प्यार देती हैं तो विचित्र प्रकार की शान्ति अनुभव करता हूं। मां की वात्सल्यता का रसास्वादन नित्य होता है।"
''हां, यह तो है। संतान का माता-पिता से किसी प्रकार का सम्बंध होता है, जो शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। केवल अनुभव में ही आता है। अब इस विषय पर विचार करना आवश्यक हो गया है।"
''किस विषय पर?"
"तुम्हारे विवाह के विषय में।''
"मैं समझता हूं कि यह सार्थक नहीं होगा। मुझे इसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती।"
"यह भी विचार कर लिया जायेगा।''
तारकेश्वरी देवी ने उसी दिन प्रियवदना से भी बात कर दी। रात भोजनोपरान्त प्रियवदना अपने कमरे में जाने लगी तो तारकेश्वरी ने कह दिया, "प्रियम्। तनिक मेरे साथ आओ।"
"क्या है बूआ?"
"तुम्हारे कान मरोड़ने हैं, परंतु एकान्त में।"
प्रियवदना मुस्करायी और उक्तके साथ तारकेश्वरी के कमरे में चली गयी। बूआ ने भतीजी को अपने सामने बैठा पूछना आरम्भ कर दिया, "जानती हो, राम का मुझसे क्या सम्बंध है?''
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :