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उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

"इस काम को मैं बिना आंखों के चला रहा हूं और मैं नहीं जानता कि दृष्टि पा जाने पर यह काम अब से अधिक सुचारू रूप से चल सकेगा क्या? इस कारण मैं आपरेशन क़े विषय में कुछ भी सम्मति नहीं दे सकता।

''मैं तो यह जानता हूं कि आंखों का अभाव तो यथासम्मव पूर्ण हो सकेगा, परन्तु यदि कहीं आत्मोन्नति का मार्ग ही कट गया तो फिर पीछे को जाना भी पड़ सकता है।''

इस पर तारकेश्वरी ने कह दिया, "राम! तुम ठीक कह्ते हो। भगवद् भजन ही तो मुख्य काम हैं। यदि वह चलता कुए तो चलना चाहिये। तुम तो जानते हो....

भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा।।

बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।

भोजन समाप्त हुआ तो सेठ जी ने उठ हाथ धो कुल्ला किया और फिर सबके साश सूरदास के कमरे में जा पहुँचे। वहां बैठते ही उन्होंने कहा, "राम! तुम्हें कल देख मेरे मन मे इतनी प्रसन्नता अनुभव हुई है कि रात मैं सो नहीं सका। मैं भी अपना एक कल्पना का संसार बसाता रहा हूं। उसकी पूर्ति भी भगवान् के हाथे में है।"

"पिता जी! क्या विचार करते रहे हैं?" सूरदास का विचार था कि वह कमला से विवाह की बात कहेंगे, परन्तु सेठ जी ने बात दूसरी ही कर दी। उन्होंने कहा, "मैं भी इस व्यापार से मुक्त होना चाहता हूं और अब मैं श्रेय के मार्ग का अवलम्बन करना चाहता हूं। तुम्हारे मिल जाने से मुझे यह सम्भव लगने लगा है। इसी से कल्पना के महल बनाने लगा था। इसी कल्पना के क्षेत्र में विचरते हुए दिन चढ़

गया।"

"पिता जी। कितना पैदा कर लिया होगा आपने?"

''मेरे पूर्वज सीकर के रहने वाले थे। पिताजी दस-ग्यारह वर्ष की वयस् में अपने पिता से नाराज़ हो घरछोड़ आये थे और किसी प्रेरणा वश बदायुँ में टिक गये। यहां गुड़ का काम होता है। कदाचित् गुड़ खाने में रुचि रखने के कारण ही उन्होने यहां नौकरी कर ली। चार रुपया महीना और रोटी, कपड़े पर।

''यह जो कुछ तुम देखते हो, उसी चार रुपये महीने के स्रोत से ही है। वह घर का काम करते हुए ही गुड़ काव्यापार करने लगे। जब मेरा जन्म हुआ तो पिताजी व्यापारी व्यापारी बन चुके थे। गुड़ का व्यापार तो चलता था, साथ गेहूँ इत्यादि की आढ़त की दुकान भी आरम्भ कर दी थी। जब मेरा विवाह हुआ तो हमने एक कोठी कानपुर में खोल ली थी।

''राम! तुम्हारे घर पर आने के उपरान्त तो धन का बहाव घर में ऐसे होने लगा था कि मानो साक्षात गंगा बह रही हो।

''रात विचार करते करते यह समझ आया कि व्यापार बहुत हो गया है। अब यह सीमा से अधिक हो गया लगता है; इसी कारण इसमें विकार होने लगा है। इतना बड़ा बोझा उठा कर यात्रा पर चला नहीं जा सकेगा। अत: अब इसका त्याग कर कहीं सरल जीवन व्यतीत करने का विचार कर रहा हूं।"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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