उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
"मन्दिर के साथ ही एक पर्याप्त बड़ा हाल है। वहां अभी सायं- काल कथा औरे कीर्तन होता है। तुम वहां चलोगे तो पुन: राम नाम की धूम मचसे लगेगी।"
"पिताजी। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि मैं रहूँगा तो यहां माताजी के पास ही; इस पर भी वहां कथा करने के लिए समय-समय पर जाया करूंगा। कम से कम वर्ष में दो बार नवरात्रों में अवश्य राम कथा होगी।"
सेठजी इतने मात्र से सन्तुष्ट थे, परन्तु कमला के राम से विवाह होने की अवस्था में उसके कारोबार की व्यवस्था पुन: बदलने की बात समक्ष आ गयी। यह बात उन्होंने बतायी नहीं। वह मन ही मन विचार करते रहे।
कौड़ियामल्ल ने तारकेश्वरी से कह दिया, "देखो बहन! मैं कमला के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। उसके आने पर राम का कार्यक्रम सुगमता सै बन सकेगा।''
"पिताजी! मेरा कार्यक्रम तो बन गया है। मैं आगामी नवरात्रि में बदायूं आऊंगा।"
"बचार करने की बात यह भी है।" तारकेश्वरी ने कह दिया, "कि आंखों का आपरेशन कराया जाए अथवा नहीं?"
''राम क्या चाहता है?''
"मैं तो राम भरोसे हूं। मुझे कुछ ऐसा समझ आता है कि मैं आपरेशन मे मरूँगा नहीं। इस पर भी ईश्वर की इच्छा जैसी होगी, वैसा हो जायेगा। शेष आप लोगों के विचार करने की बात है।"
इस समय प्रियवदना ने बातों में हस्तक्षेप करतें हुए अपने मन की बात कह दी, ''मैं समझती हूँ कि आपरेशन नही कराना चाहिये। इस समय कुछ अभाव तो है, परन्तु इस अभाव को मिटाते मिटाते सब कुछ ही अभाव-ग्रस्त न हो जाये, यह आशंका भी तो है।
''मैं तो राम जी से यही आग्रह कर रही हूं कि वह आपरेशन कराने से इन्कार कर दें।"
"और मैं वाह रहा हूँ।" सूरदास ने कहा, "कि इस विषय में विचार करना तथा निश्चय करना मेरा काम नहीं। मैंने इस बात का निर्णय माता जी पर छोड़ रखा है। मरने-जीने की मुझे चिन्ता नहीँ। मैं जानता हूँ कि मैं तो मरने वाला नहीं हूँ। मैं निश्चय से जानता हूँ कि.....
य एनं वेत्ति हन्तार यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
"'ठीक है, राम! मैं तुम्हारी विचार करने की विधि पर प्रसन्न हूँ। इस पर भी कोई प्राणी जहां भी मरने का भय है, वहां जान-बूझ कर नहीं जाता। कोई भी मरना नही चाहता, परन्तु इसका यह हार्थ नही कि मौत से डर कर हम कर्त्त व्य पालन मेँ प्रमाद कर बैठें।
"तुम्हारे विषय में विचारणीय बात यह है कि तुम्हारा कर्त्तव्य क्या है? यदि उसका पालन करते हुए मृत्यु आती है तो भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। क्या तुम्हारे जीवन का काम आंखों के बिना चल सकेगा? यदि चल सकता है तो फिर व्यर्थ में जीवन का भय मोल लेना बुद्धिमत्ता नहीं।"
"बताओ, आंखों के मिल जाने पर क्या करना चाहते हो?'
'पिता जी! मान तक तो मैं यही समझा हूं कि मेरा काम हरि भजन कर अगला जन्म वर्तमान से अच्छा पाना है।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :