उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 5 पाठक हैं |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
तारकेश्वरी ने उसकी बांह पकड़ अपनी बांह में डाली और उसे अपने कमरे में ले गयी। उसे पलंग पर बैठा तारकेश्वरी ने पीठ पर हाथ रख कह दिया, "हम राम को तुम्हारे हवाले करने आयी हैं। मैं आशा करती हूं कि तुम लोग मेरी अभिलाषा पूर्ण करोगे।
''ठीक है न? बस करो, अब रोओ मत और जाओ सुहाग रात की तैयारी करो। अपनी माता जी को भेज दो, जिससे विवाह का कार्य क्रम निश्चय कर सकें।"
जब सेठजी और कमला बम्बई से विदा हुए और कमला जाने से पूर्व चरण वन्दना करने आयी थी, तब भी निश्चय नहीं हो सका था। सूरदास कह रहा था,"माताजी! प्रियवदना नहीं जानती और मैं जानता हूँ कि सेठ जी की लड़की संसार की परम सुन्दरियों में से है।''
तारकेश्वरी इसे कोरी भावना मात्र समझती थी, परन्तु धनवती को सूरदास की भावना का ज्ञान हो गया था। उसने बताया, "बहन जी! राम का अभिप्राय कमला की अन्तरात्मा से है। यह शरीर तो देख नहीं सकता। यह अन्तचंक्षुओं से आत्मा की बात कह रहा है।"
प्रियवदना यह बात सुन रही थी। उसने सूरदास से पूछ लिया, "और मुझे कैसा समझते हो राम!"
''प्रियवदना बहन! तुम बहन हो। तुम कैसी भी हो, सदा स्नेह की पात्र रहोगी। इस पर भी में कहता हूं कि तुमको अभी अपना मन, बुद्धि और आत्मा को परिमार्जित करना चाहिये। इस पर बम्बई के समाज को देख देख बहुत मैल जम गयी लगती है।''
इस पर प्रियवदना नाराज़ हो उठ कर अपने कमरे में चली गयी। तारकेश्वरी मान गयी, परन्तु उसने कह दिया, "देखो राम! मैं तुम्हारी इच्छा का आदर करूंगी, परन्तु तुमको आखों का आपरेशन करा कमला के शरीर को भी देख लेना चाहिये। तब जो कुछ तुम कहोगे, वह मान जाऊंगी।"
सूरदास का कहना था, "माँ! तुम प्रबन्ध कर दो। मुझे इसमें भय नहीं लगता, परन्तु जिन मानस चक्षुओं से मैं अब देख रहा हूं वे तो तब भी रहेंगे मोर अन्तरात्मा के सौन्दर्य को देखते रहेंगे। मेरे लिये भौतिक दृष्टि मिल जाने से कुछ अन्तर नहीं पड़ता।"
इस प्रकार एक मास के भीतर ही धनवती और तारकेश्वरी दोनों राम के साथ मौंट्रील चली गयीं। दो महीने वहां लगे। एक महीना तारकेश्वरी राम को लेकर अमेरिका के भिन्न भिन्न नगरों में भ्रमण करती रही और फिर भारत लौट आयी।
प्रियवदना इनके स्वागत के लिये ऐयरोड्रोम पर पहुँची हुई थी। तारकेश्वरी इत्यादि के पास दिल्ली का टिकट था और वे बम्बई से दिल्ली जाने वाली थी। प्रियवदना ने राम को नमस्कार कर कहा, "में प्रियवदना हूं"
''ओह! आवाज़ से पहचान गया हूं, परन्तु रूप नहीं पहचानता।''
प्रियवदना ने एक चित्र राम के हाथ में देकर कहा, "यह है जिसके लिये तुम दिल्ली भागे जा रहे हो।''
चित्र तारकेश्वरी ने देखा और पहचान लिया। उसने पूछ लिया, "कहाँ से पा गयी हो इसे?''
''मैंने यहां से एक फ़ोटोग्राफ़र बदायूं भेजा था और वह कमला का चित्र ले आया है।''
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :