उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
उसने यह भी कहा, "इस समय हम भाड़े के मकान में रहते हैं। हम फूफाजी की इतनी सामर्थ्य समझते हैं कि वह अपनी लडकी के लिये एक अच्छा मकान पूरी तरह के साजोसामान से सुसज्जित और सब प्रकार की सुख-सुविधाओं से युक्त मुरादाबाद में बनवा दें।"
''विवाह कब तक चाहते हो?" मैंने पूछा। वह बोला, "मैं तो चाहूंगा कि शीघ्र ही विवाह हो जाये। मैं अब तेईस वर्ष का हो गया हूँ, परन्तु माता-पिता का यह कहना है कि आपकी लड़की की सुख सुविधा के लिये एक अच्छा सा मकान होता अनिवार्य है।"
''इस पर मैंने उमसे उसके काम के विषय मैं पूछ लिया, "कहां नौकरी पा गये हो?'' उसने बताया, "असिस्टेण्ट के रूप में पोस्टल डिपार्टमैण्ट बरेली में नियुक्त हुआ हूँ। दो सौ पचपन रुपये अभी मिलेंगे, उन्नति भी होगी।"
मैंने एक बात और पूछी, "यदि इससे अच्छे वेतन पर किसी प्राइवेट फ़र्म में नौकरी मिले तो क्या विचार है?'' उसका कहना था, "मैं प्राइवेट नौकरी पसन्द नहीं करता। उसमें स्थायित्व नहीं होता। साथ ही इस नौकरी में पेंशन और ऊपर से आय के लिये सदा स्थान बना रहता है।"
''शीलत्रती! मैंने कुछ अधिक पूछ-ताछ करनी व्यर्थ समझ, यह कह दिया है, "सेठजी पर भगवान् की कृपा है और वह इतना कुछ अपनी लड़की के लिये करने में कठिनाई नहीं मानेंगे। इस पर भी लेन- देन की बात वह स्वयं करेंगे। तुम्हारे माता-पिता जानते हैं कि मैं एक बहुत ही निर्धन माता-पिता की लड़की हूं। मेरे पास अपना एक पैसा नहीं। इस कारण इस विषय पर कमला के पिता तुम्हारे पिता से मिलकर बात कर लेंगे।
''मैं समझती हूँ कि तुम्हारे माता-पिता ने दों-तीन लाख का नुस्खा बताया है। इससे अधिक तो हम एक वर्ष में दान-दक्षिणा के कामों पर व्यय कर देते है। तुम आज आराम करो और कल प्रात: मुरादाबाद चल देना। बहुत यत्न से। नौकरी मिली है और इस नियामत का यत्न से पालन करना चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि यह सोने की चिड़िया हाथ से निकल जाये।"
शीलवती सेठानीजी के व्यंग को समझ गयी। उसने कह दिया, "माताजी। अभी-अभी कमला मुझे कह रही थी कि उसका विवाह इस मूर्ख लड़के से नहीं हो सकता। साथ ही वह आज फिर कहने लगी है कि उसका विवाह भैया राम से हो चुका है।"
चन्द्रावती ने कुछ परेशानी के भाव में पूछ लिया, "शील। किसी प्रकार का कमला और नयनाभिराम में शारीरिक सम्बन्ध तो नहीं बनीं।''
''आप इसमें सन्देह के लिये कुछ काराण मानती हैं क्या?''
''कह नहीं सकती। एक क्षीण सा सन्देह है। एक दिन की बात है। यह प्रकाश के लखनऊ टिकट लेने के लिये जाने से पहले की बात है। मैं रात किसी कार्य से कमला के। कमरे में गयी थी। "एयर- कण्डीश्नर" चल रहा था और कमरा पर्याप्त ठण्डा था। कमला कमरे में नहीं थी। उसक बिस्तर खाली पड़ा था। मैंने समझा कि वह 'बाथरूम' में गयी होगी। मैं कुछ वस्तु लेने गयी थी और वह ढूँढ़ने लगी। मुझे उसके ढूंढ़ने में कुछ समय लगा। वह वस्तु मिल नहीं रही थी, परन्तु जब इस सब समय भी कमला 'बाथरूम' में से नहीं निकली तो मैं वह वस्तु उससे मांगने के लिये कुछ और अधिक समय तक उसकी प्रतीक्षा करती रही। परन्तु वह नहीँ आयी। तब मैंने गुसलखाने का द्वार खटखटाया। वहां से कोई उत्तर नहीं मिला। मैंने द्वार खोलना चाहा।
द्वार खुल गया और वह भीतर नही थी। मैं समझी नहीं कि वह कहा होगी? इस प्रकार चिन्ता करती हुई कमरे के बीचों-बीच, खड़ी थी कि वह रात सोने के कपडों में कमरे में आयी। मुझे वहां खड़ा देख वह एक क्षण तक झिझकी, तदनन्तर पूछने लगी, "मां! क्या लेने आयी हो?''
"मैंने बताया तो वहू अपनी कपड़ों की अलमारी में से वह वस्तु निकाल कर देने लगी। मैंने उससे पूछ लिया, "कहां थी कमला?"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
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- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :