उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
|
0 5 पाठक हैं |
गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
''बस में सवारी बैठी थीं। इस कारण मैंने पूछा, "यह ठीक हो सकेगी क्या?''
"उसने बताया, अब ठीक हो गयी है। पांच मिनट में चल देंगे।"
"बस में स्थान था सो हम उसमें सवार हो गये और रात के साढ़े दस बजे कासगंज जा पहुंचे। वहां आगरे के लिए गाड़ी तैयार खड़ी थी। हम दिन निकलने तक आगरा छोटी लाइन के स्टेशन पर पहुंच गये। वहाँ से राजा की मण्डी-और फिर वहां से दिल्ली जा पहुँचे। दिन भर हम दिल्ली में रहे। वहाँ स्टेशन के पास एक धर्मशाला में हम ठहर गए थे। स्नान-ध्यान किया, पूरी खायी और सांयकाल की गाड़ी से हरिद्वार चले गये। हम स्टेशन से पदल ही सूरजमल की धर्मशाला में जाकर ठहर गये। घाट पर स्नान करने गये। स्नान किया और भैया को घाट पर बैठा मैं पूरी लेने चला गया। जब लौटा तो वह वहां नहीं थे। वहाँ के पण्डे से पूछा तो पता चला कि कोई स्त्री उनसे बात कर रही थी।
''इसके उपरान्त मैं सन्तजी के आश्रम पर गया। धर्मशाला में देखा और तदनन्तर दो दिन तक हरिद्वार ढूँढ़ता रहा। इन्हीं दिनों मेरी जेब कट गयी और फिर भीख माँगता हुआ पैदल लौट आया हूं।"
सेठानीजी मुख देखती रह गयीं। कमला उस समय कार्यालय में थी। सुन्दरदास उस दिन थका हुआ था; अत: घर जाकर सो रहा! सेठानीजी नें कमला को समाचार दिया तो उस दिन कमला न तो अध्यापिका जी से पढ़ सकी, न ही उसकी भोजन करने में रुचि हुई।
मां ने सूरदास के विषय में चर्चा नहीं की और जब कमला बिना एक भी ग्रास लिए थाली सामने से हटा उठ खड़ी हुई तो मां मुख देखती रह गयी। शीलवती भी वहां थी। दोनों ने भी भोजन छोड़ दिया और उठ पड़ी। इस पर भी चर्चा नहीं हुई।
शीलवती कमला के साथ उसके कमरे में जा पहुँची और उससे पूछने लगी, "कमला! क्या समझी हो इस कथा का अर्थ?''
"मुझे तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि संत कृष्णदास ने उसको कहीं छुपा रखा है। वह इनका आश्रम में रहना पहले भी पसन्द नहीं करता था। उसे सन्देह था कि इनके सामने उसकी प्रतिष्ठा नहीं बन सकेगी। अत: जब-जब भी यह हरिद्वार आश्रम पर गये, सन्त इन्हें वापिस यहां भेज देने के लिए व्याकुल रहता था।''
''तो उनकी खोज करानी चाहिए।''
''हां, परन्तु कौन करे?'' कमला ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा।
शीलवती भी अनुभव करती थी कि यदि वह पुरुष होती तो तुरन्त खोज के लिए चल पड़ती। सेठजीकारोबार छोड़कर जा नहीं सकेंगे। कमला भी अब कारोबार में इतनी गुंथ गयी थी कि उसके छोड़कर जाने को सेठजी पसन्द नहीं करेंगे। कोई नौकर-चाकर उतनी लगन से खोज कार्य कर नहीं सकेगा, जितने घर के व्यक्ति कर सकते थे।
शीलवती भी कमला के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी और मुख देखती रह गयी।
जब से सूरदास गया था हवेली में मुर्दनी छायी प्रतीत होती थी। अब सुन्दरदास के अकेले लौट आने पूर तो यह अखरने लगी। उस रात सेठानीजी सो नहीं सकीं। वह रात के दो बजे के लगभग बिस्तर से निकल वस्त्र पहन कमला के कमरे में चली गयी। कमला अपने कमरे में पूजा की चौकी पर आसन जमाये ध्यानावस्थित बैठी थी। द्वार खुलने का शब्द सुन कमला का ध्यान भंग हुआ और वह मां को सामने खडा देख विस्मय में मुख देखती रह गयी।
|
- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :