उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
"तो फिर स्वयं मुकद्दमा लड़ लो। परन्तु इस बंटवारे पर कोई आपत्ति हो तो तीन दिन में बता देना, अन्यथा मैं इसे रजिस्ट्री करवा रहा हूँ। रजिस्ट्री करवाते ही बंटवारा कर दूंगा।"
इस समय कमला भी तैयार हो कार्यालय में आ गयी। प्रकाश ने पूछा, "और कमला को क्या मिला है?"
''वह भी इसमें लिखा है।"
''लो कमला! मेरा तो पत्ता कटा।"
''मेरा तो पहले ही कटा हुआ है। लड़कियों के लिए यही ईश्वरीय विधान है कि उनका पत्ता पिता के घर से कटता ही है।"
प्रकाशचन्द्र ने प्रश्न भरी दृष्टि में पिता की ओर देखा। पिता मुस्कराता हुआ कमला की ओर देख रहा था। कुछ देर तक चुप रह कर उसने कह दिया, "कमला! मैंने तुम्हारे लिये इतना कुछ लिख दिया है कि जिससे तुम जीवन भर सूखपूर्वक जीवन चला सको और इस राम मन्दिर की सेवा कर सको। इसके अतिरिक्त यदि तुम मेरे कार्यालय में काम करोगी तो तुमको दो सहस्त्र रुपया मासिक वेतन और जीवन की अन्य सुविधायें भी मिलेंगी।''
प्रकाशचन्द्र ने पूछ लिया, "और आप क्या करेंगे?"
''मैं अभी कुछ समय तक यहां रहूंगा। मैंने विश्वम्भर के पालन करने और उसके व्यस्क होने तक एक ट्रस्ट नियुक्त किया है। वह उसके स्थान पर उसके भाग का कारोबार चलायेगा। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, सब सन्तोषजनक प्रबन्ध हो जाने पर मैं हरिद्वार में गंगा स्नान करता हुआ जीवन व्यतीत करना चाहता हूं।''
''कितना निरर्थक जीवन है।''
''हां, यह उस अर्थ से हीन है जिसे तुम अर्थ समझते हो। कुछ अन्य हैं जो इसे अर्थ युक्त मानते हैं।''
प्रकाशचन्द्र लिफाफ़ा लिये हुए उठकर चला गया। बहुत जल्दी करने पर भी सेठ कौड़ियामल्ल की सम्पत्ति का बटवारा रजिस्ट्री कराने में और फिर उसके अनुसार प्रबन्ध करने में चार महीने से ऊपर लग' गये। कार्तिक मास आ गया और राम मन्दिर में नवरात्रों का समारोह करने की तैयारी होने लगी थी। सेठ जी ने सूरदास को निमन्त्रण दिया था, परन्तु वहां से उत्तर नहीं आया।
एक दिन बिना पूर्व सूचना के बरेली से आने वाली मध्याहन की गाड़ी से नयनाभिराम आंखों पर काला चश्मा लगाये हुए बदायूं रेल के स्टेशन पर रेत के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में से उतरा। उसके साथ धनवती, तारकेश्वरी और प्रियवदना भी थीं। गाड़ी में से सूटकेस, बिस्तर इत्यादि कुली निकालने लगे तो तारकेश्वरी ने! कहा, "प्रियम्! यह तो बहुत ही सामान्य सा स्थान है?"
धनवती सामान की गिनती कर रही थी। सब स्टेशन से बाहर आये। सूरदास हाथ में छड़ी लिये हुए था। ऐसा प्रतीत होता था कि यह छड़ी उसने नयी बनी आंखों से दिखायी दे रहे संसार को टोह टोह कर चलने के लिये पकड़ी हुई थी। वह पग जमा जमा कर चल रहा था।
स्टेशन के बाहर साईकल रिक्शा खड़े थे। एक पुराना तांगा भी था। सामान तांगे में लाद धनवती को उसमें बैठा दिया गया और दो रिक्शा किये गये। तीनों शेष सवारियां दो रिक्शा में बैठ गईं। मां-पुत्र एक में और प्रियवदना दूसरी में। रिक्शा वालों को सेठ कौड़ियामल्ल की हवेली पर चलने के लिये कहा गया।
जिस रिक्शा मैं सूरदास बैठा था, रिक्शा वाला चलाने के लिये अपनी सीट पर बैठने लगा तो ध्यान से सूरदास के मुख पर देख पूछने लगा, "आप तो राम कथा करने वाले सूरदास हैं?"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :